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गुरुवार, 23 सितंबर 2021

"प्रभु का पहरा"




जिसकी रक्षा प्रभु स्वयं करें उसका नाम अहित कोई कैसे कर सकता है। ऐसा ही तुलसी दास जी के साथ हुआ, जब उन्होंने रामायण लिखी तो उनका बड़ा नाम हुआ। कुछ लोगो ने इकट्टे होकर बोले की इनकी रामायण ही चुरा ली जाये या नष्ट कर दी जाये।

          कुछ चोर भेजे गये चोरी करने। जब वे दरबाजे पर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि दो राजकुमार हाथों में धनुष लिये द्वार पर खड़े हैं, प्रत्यंचा चढ़ी है और तीर चलने को तैयार हैं। चोर बोले की पीछे से चलते है, जैसे ही पीछे गये तो के देखे वो ही राजकुमार खड़े है, वो चारों तरफ से गये, जहाँ-जहाँ से जायें वही-वही दोनों खड़े नजर आएं। चोर चक्कर लगा-लगा कर थक गये, तो जैसे ही अंदर जाने लगे, उन राजकुमारों के घोड़े उनके पीछे लग गये। अब तो वो बस भागते ही जायें आगे-आगे चोर और पीछे-पीछे घोड़े। आखिर में भागते-भागते वे गिरकर बेहोश हो गये।

         जिन लोगों ने उन्हें चोरी करने भेजा था उन्होंने उन चोरों को बेहोश पड़े पाया। वे उन चोरों को होश में लाये तो उन चोरों ने सारा वृतांत कह सुनाया। सारा वृतांत सुनने के बाद वे सभी कपटी लोग तुलसीदासजी के पास अपनी कुटिलता के साथ जा पहुँचे। जाकर तुलसीदासजी से बोले, हमें ज्ञात हुआ है कि कुछ चोर रात्रि में आपके यहाँ चोरी करने आये थे, जिन्हें आपके पहरेदारों ने भगा दिया। हमें तो आपकी बहुत चिन्ता हो रही थी इसलिये आपका हाल लेने चले आये। वैसे आपके द्वार पर वे धनुषधारी दो घुडसवार पहरेदार कौन हैं जो बहुत ही सतर्कता से आपकी रक्षा करते हैं। सुना है श्याम और गौर वर्ण के वे दोनों राजकुमार बहुत ही बलशाली हैं।

       इतना सुनते ही गोस्वामी तुलसीदासजी के नेत्रों से झर-झर आँसू बहने लगे, गोस्वामीजी अधीर हो कहने लगे- "प्रभु ! इस दास के इस तुच्छ शरीर के लिए आपने इतना कष्ट क्यों सहा, ये अधम तो आपके चरणों का दास है, इस दास के लिए आपने अपनी निंद्रा का त्याग क्यों कर दिया। ऐसे ही कहते-कहते गोस्वामी तुलसीदास जी फूट-फूटकर रोने लगे।