शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

चोर-चोर

चोर-चोर

एक रात जब मैं
कवि- सम्मेलन से घर आया
तो दरवाज़ों को
अपने स्‍वागत में खुला पाया,
अंदर कवि की कल्‍पना
या बेरोज़गार के सपनों की तरह
सारा सामान बिखरा पडा था
और मैं
हूट हुए कवि की तरह खड़ा था
क्‍या-क्‍या गिनाऊं सामान
बहुत कुछ चला गया श्रीमान
बस एक ट्रांजिस्‍टर में
बची थी थोड़ी-सी ज्‍योति
जो घरघरा रहा था—
‘मेरे देश की धरती सोना उगले
उगले हीरे-मोती’
सुबह होते ही लोग आने लगे
चाय पीकर और उपदेश पिलाकर जाने लगे
मेरे ग़म में अपना ग़म
ग़लत करने के लिए
ठूंस-ठूंस कर खाने लगे
चोरी हुई सो हुई
चीनी-पत्ती-दूध पर पड़ने लगा डाका
दो ही घंटे में खाली डिब्‍बों ने मेरा मुंह ताका
मेरी परेशानी देखकर
मेरे पड़ोसी शर्मा ने ऐसा पड़ोसी धर्म निभाया
मुझसे पैसे लिए
और पत्ती-चीनी के साथ समोसे भी ले आया
इस तरह चाय पिलाते-पिलाते
और चोरी का किस्‍सा बताते-बताते
सुबह से शाम हो गई
गला बैठ गया और आवाज़ खो गई
पचहत्तरवें आदमी को
जब मैंने बताया
तो गले में दो ही शब्‍द बचे थे— ‘हो – गई’
अगले दिन मैंने
दरवाज़े जितना बड़ा बोर्ड बनवाया
और उसे दरवाज़े पर ही लटकाया
जिस पर लिखवाया--
भाइयो और बहनो,
कल रात जब मैं घर आया
तो मैंने पाया
कि मेरे यहां चोरी हो गई
चोर काफी सामान ले गए
मुझे दुःख और आपको खुशी दे गए
क्‍योंकि जब मैं जान गया हूं
कि वही आदमी सुखी है
जिसका पड़ोसी दुःखी है
कृपया अपनी खुशी
मेरे साथ शेयर न करें
अंदर आकर
चाय मांगकर शर्मिंदा न करें
आपका अदर्शनाभिलाषी’
लेकिन उसे पढ़कर एक नर-पुंगव अंदर आया
मैंने अपना गला सहलाते हुए उसे बोर्ड दिखाया
वो बोला— ‘भाई साहब,
बोर्ड मत दिखाओ
हुई कैसे, ये बताओ’
मेरे पत्रकार मित्र ने तो पूरी कर दी बरबादी
अगले दिन ये खबर अख़बार में ही छपवा दी
अब क्‍या था
मेरी जेब में मच गया हाहाकार
दूर-दूर से आने लगे
जाने-अनजाने, यार-दोस्‍त, रिश्‍तेदार
एक दूर के रिश्‍ते ही मौसी बोली-
’बेटा आज तो मेरा व्रत है
आज तो बस मैं फल और मेवे ही खाऊंगी
और जब तक चोर पकड़ा नहीं जाएगा
तुझे अकेले छोड़कर नहीं जाऊंगी।‘
दस दिन बाद मैंने हिसाब लगाया
चोरी तो तीन हज़ार की हुई थी
पर उसका हाल बताने में
पाँच हज़ार का खर्चा आया
मैंने सोचा बचे-खुचे पैसे भी
ठिकाने लग गए तो कहां जाऊंगा
अगर दस दिन और इसी तरह चलता रहा
तो मैं तो मारा जाऊंगा
अगले दो दिन और मैं इसी तरह से जिया
पर तीसरे ही दिन
मैंने एक खतरनाक और ऐतिहासिक फैसला लिया
अपने भीतर
फौलादी इच्‍छा-शक्ति भर ली
और उसी रात पड़ोसी शर्मा के यहां
छोटी-मा‍टी चोरी कर ली
अगले दिन मैंने
सुबह का नाश्‍ता शर्मा जी के यहां जमाया
पत्रकार मित्र से कहकर अख़बार में छपवाया
और अपने रिश्‍ते की मौसी को
उसके रिश्‍ते की बूआ बनवाया
अब जब भी
उसके घर की घंटी बजती
मेरे भीतर के जानवर को
बहुत खुशी मिलती
मैं मन ही मन कहता--
’अबे शर्मा राम भरोसे
ले और खा समोसे’
अब शर्मा जी की तबीयत बुझ गई
मेरी खिल गई
जिसकी पिछले तेरह दिन से इंतज़ार थी
वो शांति मुझे मिल गई
मेरी जेब में पडा
आखिरी दस का नोट
अब किसी से नहीं डरेगा
अब मुझे पता है
कि मेरे यहां चोरी क्‍यों हुई
और मोहल्‍ले में
अगली चोरी कौन करेगा।।

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

जिंदादिली

जिंदादिली

एक दिन एक व्यक्ति एरिजोना इलाके से गुजर
रहा था।
उसी समय अचानक तेज
आंधी और वर्षा होने लगी।
व्यक्ति की कार में गैस खत्म हो गई। वह
एक गैस स्टेशन पर अपनी गैस भरवाने के लिए
रुका। भारी बारिश के बीच वह
गाड़ी में बैठा रहा और वहीं से
गैस भरने वाले व्यक्ति को निर्देष देता रहा। जब
उसकी गाड़ी में गैस भर गई
तो वह गैस भरने वाले कर्मचारी से बोला, 'मुझे
माफ करना । मैंने तुम्हें इतनी बारिश में कष्ट
दिया। बमुश्किल तुम मेरी गाड़ी में
गैस भर पाए हो।' यह सुनकर गैस भरने
वाला कर्मचारी मुस्करा कर बोला, 'कोई बात
नहीं सर। आपको माफी मांगने
की कोई जरूरत नहीं है। मैंने
आपकी गाड़ी में खुशी-
खुशी गैस भरी है। मुझे इस काम
में कोई भी तकलीफ
नहीं हुई।' गैस भरने वाले
कर्मचारी की बात सुनकर
गाड़ी का मालिक गाड़ी में से
ही बोला,'अरे भारी तूफान और
बारिश है और तुम कहते हो कि गैस भरते हुए
जरा भी परेशानी नहीं हुई।'
गैस कर्मचारी मुस्करा कर बोला,
'जी सर, सचमुच कोई
परेशानी नहीं हुई है।
दरअसल मैंने हर हाल में खुश
रहना सीख लिया है।' अब
गाड़ी का मालिक और हैरान हुआ। वह
बोला, 'तुम हर समय खुश रहते हो। क्या कोई
व्यक्ति हर हाल में खुश रह सकता है?'
कर्मचारी बोला, 'बिल्कुल! यदि कोई
व्यक्ति मौत
को अपने करीब से देख ले तो वह हर
हाल में खुश रह सकता है। वियतनाम युद्ध के
दौरान
शत्रुओं की घेराबंदी में जब पल-
पल मौत मेरी ओर बढ़
रही थी, मैंने
उसी समय निश्चय कर लिया था कि यदि मैं
जीवित बच गया तो अपने जीवन के
हर पल को जिंदादिली और
खुशी से जिऊंगा। मैं जीवित बच
गया और इसके बाद मैंने जीवन के हर पल
को नेकी, ईमानदारी और
जिंदादिली से जीना शुरू कर दिया। मुझे
जीवन का महत्व पता है।' गैस
कर्मचारी की बात सुनकर
गाड़ी का मालिक भावुक हो गया। वह
गाड़ी से बाहर निकला और तेज बारिश में उस
कर्मचारी को गले लगाकर बोला, 'आज तुमने
मुझे जीवन को अच्छी तरह से
जीने की एक बहुत
बड़ी सीख दी है।'
इसके बाद वह गैस कर्मचारी को सलाम ठोंक
कर आगे बढ़ गया।

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मूर्ती पूजा

कोई कहे की की हिन्दू मूर्ती पूजा क्यों करते हैं
तो उन्हें बता दें मूर्ती पूजा का रहस्य :-
स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने अपने भवन में
बुलाया और बोला, "तुम हिन्दू
लोग मूर्ती की पूजा करते हो!
मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ती का.! पर मैं ये
सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।"
उस राजा के सिंहासन के पीछे
किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद
जी कि नजर उस तस्वीर पर पड़ी।
विवेकानंद जी ने राजा से पूछा, "राजा जी, ये
तस्वीर किसकी है?"
राजा बोला, "मेरे पिताजी की।"
स्वामी जी बोले, "उस तस्वीर को अपने
हाथ में लीजिये।"
राजा तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।
स्वामी जी राजा से : "अब आप उस तस्वीर पर
थूकिए!"
राजा : "ये आप क्या बोल रहे हैं
स्वामी जी?
स्वामी जी : "मैंने कहा उस तस्वीर पर
थूकिए..!"
राजा (क्रोध से) : "स्वामी जी, आप होश मे
तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।"
स्वामी जी बोले, "क्यों? ये तस्वीर तो केवल
एक कागज का टुकड़ा है, और जिस पर कूछ रंग
लगा है। इसमे ना तो जान है, ना आवाज,
ना तो ये सुन सकता है, और ना ही कूछ बोल
सकता है।"
और स्वामी जी बोलते गए, "इसमें
ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस
पर कभी थूक नही सकते। क्योंकि आप इसमे
अपने पिता का स्वरूप देखते हो।
और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने
पिता का अनादर करना ही समझते हो।"
थोड़े मौन के बाद स्वामी जी आगे कहाँ,
"वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी,
या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान
कर करते हैं।
भगवान तो कण-कण मे है, पर एक
आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के
लिए हम मूर्ती पूजा करते हैं।"
स्वामी जी की बात सुनकर राजा ने स्वामी जी से

क्षमा माँगी।


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शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

ग्लास का भार एक बार एक साइकोलॉजी की प्रोफेसर कक्षा में आई. और एक गिलास उठा लिया .. सबने सोचा की अब वो वहीँ पुराना 'ग्लास आधा ख़ाली है या आधा भरा' वाला पाठ पढ़ाएगी. पर उसके बदले उन्होंने छात्रों से पूछा की उनके हाथ में जो कांच है उसका वजन कितना है? सभी छात्रों ने अपने अपने अनुसार उत्तर दिए .. किसी .. पर महिला प्रोफेसर ने जवाब दिया ग्राम 100 ने किसी तो 50 ग्राम कहा, ने, 'मेरे ख्याल से सही वजन का गिलास इस बात नहीं करता .. बल्कि ये करता है बात की मैं इसे कितनी देर तक करके रखती हूँ पकड़. अगर मैं इसे केवल 1-2 मिनट के लिए उठा के रखती हूँ तो ये मुझे सामान्य सा लगेगा .. पर यदि मैं इसे एक घंटा उठा के रखती हूँ तो मेरा हाथ दुखने लगेगा .. पर यदि मैं इसे पूरा दिन उठा के रखूं .. तो यक़ीनन मेरा हाथ सुन्न पड़ जायेगा .. थोड़ी देर के पंगु बना लिए हो जायेगा .. मतलब की इसका थोडा सा भार भी, यदि मैं ज्यादा देर तक उठा की रखूं. तो मुझे तकलीफ हो सकती है .. "सभी इस उत्तर से सहमत थे. वो आगे बोली, "इसी तरह अगर, एक छोटी सी समस्या की चिंता मैं करती रहूँ .. तो पहले वो कोई ख़ास भार नहीं देगी मन पर .. पर यदि मैं उसी के बारे में सोचती रहूँ .. उसी से परेशान रहूँ .. उसी पर तनाव करती रहूँ .. तो वो छोटी से परेशानी भी मुझे बहुत बड़ी तकलीफ दे सकती है .. मैं डिप्रेशन का शिकार हो सकती हूँ .. मैं दूसरा कुछ भी कार्य करने में असमर्थ हो जाउंगी .. यही तो हमारी वास्तविक परेशानी है .. "सबक: आप अपने परेशानियो को मन से जाने दे, ये बहुत जरुरी है. आपकी परेशानियां आपके मन में रहे या न रहे ये आप कर सकते है फैसला. किसी भी समस्या का इतना तनाव न लें .. की आपके स्वास्थ  को दिक्कत हो ...

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तेनाली राम का इन्तेहाम

मुगल बादशाह बाबर ने अपने दरबारियों से तेनाली राम की बहुत प्रशंसा सुनी थी। एक दरबारी ने कहा, "आलमपनाह, तेनाली राम की हाजिर-जवाबी और अक्लमंदी बेमिसाल है।" बाबर इस बात की सत्यता परखना चाहता था।

उसने राजा कृष्णदेव राय को एक पत्र भेजा, जिसमें उसने प्रार्थना की कि तेनाली राम को एक मास के लिए दिल्ली भेज दिया जाए, जिससे उसकी सूझबूझ का नमूना बादशाह खुद देख सकें। कृष्णदेव राय ने तेनाली राम को विदा करते समय कहा, "तुम्हारी सूझबूझ और बुद्धिमानी की परीक्षा का समय आ गया है। जाओ और अपना कमाल दिखाओ। अगर तुम पुरस्कार ले आए तो मैं भी तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा। और अगर तुम पुरस्कार न प्राप्त कर सके तो मैं तुम्हारा सिर मुंडवाकर दरबार से बाहर निकाल दूंगा।"


तेनाली राम के दिल्ली पहुंचने की सूचना जब बाबर को मिली तो उसने अपने दरबारियों से कहा, "हम इस आदमी का इम्तिहान लेना चाहते हैं। मेरी ताकीद है कि आप लोग इसके मजाकों पर न हंसें। यह आदमी यहां से आसानी से इनाम हासिल करके न जाने पाए।"

दरबार में पहुंचकर तेनाली राम ने अपनी बातों से बादशाह और दरबारियों को हंसाने का प्रयत्न किया। यह क्रम पंद्रह दिन तक चलता रहा, लेकिन कोई न हंसा। सोलहवें दिन से तेनालीराम ने दरबार जाना छोड़ दिया।

एक दिन बाबर रोज की तरह सैर को निकला। साथ में एक नौकर था, जिसके हाथ में अशर्फियों की थैलियां थीं। बादशाह ने देखा कि सड़क के किनारे एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति खोदकर उसमें आम का पौधा लगा रहा है। उस व्यक्ति की कमर झुकी हुई थी। बाबर ने उसके पास जाकर कहा, "बूढ़े मियां, यह क्या कर रहे हो?"

"आम का पेड़ लगा रहा हूं। इस इलाके में यह पेड़ कम पाया जाता है। इसलिए अच्छी बिक्री होगी।" बूढ़े ने कहा। "लेकिन आपकी उमर तो काफी अधिक है। इस पेड़ के फल खाने के लिए आप तो होंगे नहीं। फिर इस मेहनत से क्या फायदा?" बाबर ने कहा।

"आलमपनाह, मेरे अब्बाजान ने जो पेड़ लगाए थे, उनके फल मुझे खाने को मिले। इसी तरह मेरे लगाए हुए पेड़ के आम कोई और खाएगा। जब मेरे लिए अब्बाजान ने पेड़ लगाए, तो मैं दूसरों की खुशी के लिए ऐसा क्यों न करूं?" बूढ़ा बोला।

"हमें आपकी बात पसंद आई।" बाबर के कहते ही नौकर ने सौ अशर्फियों की थैली बूढ़े को दे दी। "बादशाह सलामत बहुत मेहरबान हैं।" बूढ़े ने कहा, "सब लोग पेड़ के बड़े होने पर फल खाते हैं पर मुझे इसे लगाने से पहले ही फल मिल गया है। दूसरों की भलाई करने के विचार का नतीजा ही कितना अच्छा होता है।"

"बहुत खूब!" बाबर के इशारा करते ही नौकर ने एक और थैली उसे भेंट कर दी। बूढ़ा फिर बोला, "बादशाह सलामत की मुझ पर बड़ी मेहरबानी है। यह पेड़ जब जवान होगा तो साल में एक बार फल देगा पर, आलमपनाह ने तो इसे लगाने के दिन ही दो बार मेरी झोली भर दी।"

बाबर ने इस बार भी खुश होकर उसे एक थैली देने का आदेश दिया और हंसते हुए अपने नौकर से कहा कि चलो यहां से नहीं तो यह बूढ़ा हमारा खजाना खाली कर देगा। "एक पल इंतजार कीजिए आलमपनाह," कहते हुए बूढ़े ने अपने कपड़े उतार दिए।

तेनालीराम को अपने सामने देखकर बाबर बहुत हैरान हुआ। तेनालीराम ने फिर कहा, "बादशाह सलामत बहुत मेहरबान हैं। तेनालीराम ने कुछ ही देर में आलमपनाह से तीन बार ईनाम पा लिया है।"

बाबर ने कहा, "तेनालीराम तुम्हें ईनाम देकर मुझे जरा भी अफसोस नहीं है। तुमने इसे हासिल करने के लिए बहुत समझदारी से काम लिया है।" तेनालीराम वापस विजय नगर आया। राजा ने सारी कहानी सुनकर उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं ईनाम में दिए।
जल व पिंडदान का महत्त्व श्राद्ध पक्ष 

भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता व परिवार के मृतकों के नियमित श्राद्ध करने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है। श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहा गया है व पितृकर्म से तात्पर्य पितृपूजा भी है।अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (कुंवार) माह की अमावस्या तक के यह सोलह दिन श्राद्धकर्म के होते हैं। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष की शुरुआत 30 सितंबर,2012 (रविवार) से होकर उसका समापन 15 अक्तूबर,2012 (सोमवार) को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को होगा। महर्षि पाराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि से जो कर्म यव (तिल) व दर्भ (कुशा) के साथ मंत्रोच्चार के साथ श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह श्राद्ध होता है। 

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्घ की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्घापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्घ है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है।इसी पक्ष में श्राद्घ करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है।अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती हैं। जड़-चेतनमयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जल दान दिया जाता है। 

महर्षि पुलस्त्य के अनुसार जिस कर्मविशेष में दूध, घृत और मधु से युक्त अच्छी प्रकार से पके हुए पकवान श्रद्धापूर्वक पितृ के उद्देश्य से गौ, ब्राह्मण आदि को दिए जाते हैं वही श्राद्ध है। अतः जो लोग विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करते हैं वह सभी पापों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। उनका संसार में चक्र छूट जाता है। इसीलिए चाहिए कि पितृगणों की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। कहा है कि श्राद्ध करने वाले की आयु बढ़ती है पितृ उसे श्रेष्ठ संतान देते हैं, घर में धन-धान्य बढ़ने लगता है, शरीर में बल, पौरुष बढ़ने लगता है एवं संसार में यश और सुख की प्राप्ति होती है। 

श्राद्ध कर्म में गया तीर्थ का स्मरण करते हुए 'ॐ गयायै नमः' तथा गदाधर स्मरण करते हुए 'ॐ गदाधराय नमः' कहकर सफेद पुष्प चढ़ाने चाहिए। साथ ही तीन बार 'ॐ श्राद्धभूम्यै नमः' कहकर भूमि पर जौ एवं पुष्प छोड़ने चाहिए श्राद्धकर्ता को स्नान करके पवित्र होकर धुले हुए दो वस्त्र धोती और उत्तरीय धारण करना चाहिए। गौमय से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर बैठकर श्राद्ध की सामग्रियों को रखकर सबसे पहले भोजन का निर्माण करना चाहिए। उसके बाद ईशान कोण में पिण्ड दान के लिए पाक सामग्री रख लें। साथ ही वहीं पर खीर का कटोरा भी स्थापित कर देना चाहिए। उसके बाद विप्र भोज के लिए रखे हुए भोजन में तुलसीदल डालकर भगवान का भोग लगाना चाहिए। 

श्राद्ध कर्ता को गायत्री मंत्र पढ़ते हुए शिखाबंधन करने के बाद श्राद्ध के लिए रखा हुआ जल छिड़कते हुए सभी वस्तुओं को पवित्र कर लेना चाहिए। उसके बाद तीन बार आचमनी करें हाथ धोकर विश्वदेवों के लिए दो आसन दें। उन दोनों आसनों के सामने भोजन पात्र के रूप में पलाश अथवा तोरी का एक-एक पत्ता रख दें भोजन के उत्तर दिशा में जल भरा हुआ दोना रखकर पूर्वजों के निमित्त वेद मंत्रों के साथ श्राद्ध एवं तर्पण करना चाहिए।
धर्मशास्त्रोक्त सभी ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक मधु, डेढ़ प्रहर तक दुग्ध, साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप से पितृ को प्राप्त होता है। श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर से धरती में छोड़ने से पितर को तृप्ति मिलती है। 

पितरों की पद वृद्घि तथा तृप्ति के लिए स्वयं श्राद्घ करना चाहिए। पितरों के लिए श्रद्घा से क्रमानुसार वैदिक पद्घति से शांत चित्त होकर किया कर्म श्राद्घ कहलाता है। शास्त्र में सुस्पष्ट है कि नाम व गौत्र के सहारे स्वयं के द्वारा किया श्राद्घ पितरों को विभिन्न योनियों में प्राप्त होकर उन्हें तृप्त करता है।

यम स्मृति तथा निर्णय सिंधु के आधार पर जब सूर्य कन्या राशि में अवस्थित हो, तब पितृ अपने पुत्र-पौत्र की ओर देखते हैं। अपनी तृप्ति व पद वृद्घि के हेतु जल व पिंडदान की आशा करते हैं। सूर्यसंहिता के आधार पर पितृ वर्ष में साढ़े दस महीने अपनी ऊर्जा द्वारा पुत्र-पौत्रों को शुभ-आशीष प्रदान करते हैं। पुत्र पौत्रों द्वारा दिए गए जल व पिंडदान से उन्हें ऊर्जा मिलती है। जब पितरों के निमित्त जल व पिंड दान नहीं किया जाता है, तब पितृ क्लेश करते हैं। कर्तव्य स्वरूप स्वयं द्वारा पितरों के निमित्त श्राद्घ करने से वह सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। तृप्त होकर पितृ अपने वंशजों को आशीर्वाद, सुख-समृद्घि प्रदान करते हैं। 

पितृ अत्यंत दयालु तथा कृपालु होते हैं, वह अपने पुत्र-पौत्रों से पिण्डदान तथा तर्पण की आकांक्षा रखते हैं। श्राद्ध तर्पण आदि द्वारा पितृ को बहुत प्रसन्नता एवं संतुष्टि मिलती है। पितृगण प्रसन्न होकर दीर्घ आयु, संतान सुख, धन-धान्य, विद्या, राजसुख, यश-कीर्ति, पुष्टि, शक्ति, स्वर्ग एवं मोक्ष तक प्रदान करते हैं। 

श्राद्घ में दी गई अन्न आदि सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती है। विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न योनियां प्राप्त होती हैं। कोई देवता, पितृ, प्रेत, हाथी, चींटी तथा कोई चिनार का वृक्ष या तृण बनता है। श्राद्घ में दिए गए छोटे से पिंड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है। छोटी-सी चींटी इतना बड़ा पिंड कैसे खा सकती है और देवता तो अमृत से तृप्त होते हैं। पिंड से उन्हें कैसे तृप्ति मिल सकती है। 

शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्घकाल उपस्थित हो गया है, तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्घस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं।

आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्घ नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्घ विमुख नहीं होना चाहिए। इसका प्रमाण मार्कंडेय पुराण, वायु पुराण तथा श्राद्घ कल्पलता में मिलता है।


जिस देश में श्राद्ध पक्ष इतनी श्रद्धा से और व्यापक स्तर पर मनाया जाता है उस देश में बढ़ते वृद्धाश्रम क्या इंगित करते है ? क्या हम केवल लकीर के फ़क़ीर हो रहे है ।  
जो कर्मकांड हम करते है उनके वास्तविक महत्व पर भी विचार कर रहे है ?

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पिज्जा... 

पत्नी ने कहा - आज धोने के लिए ज्यादा कपड़े मत निकालना…
- क्यों?? उसने कहा..
- अपनी काम वाली बाई दो दिन नहीं आएगी…
- क्यों??
- गणपति के लिए अपने नाती से मिलने बेटी के यहाँ जा रही है, बोली थी…
- ठीक है, अधिक कपड़े नहीं निकालता…
- और हाँ!!! गणपति के लिए पाँच सौ रूपए दे दूँ उसे? त्यौहार का बोनस..
- क्यों? अभी दिवाली आ ही रही है, तब दे देंगे…
- अरे नहीं बाबा!! गरीब है बेचारी, बेटी-नाती के यहाँ जा रही है, तो उसे भी अच्छा लगेगा… और इस महँगाई के दौर में उसकी पगार से त्यौहार कैसे मनाएगी बेचारी!!
- तुम भी ना… जरूरत से ज्यादा ही भावुक हो जाती हो…
- अरे नहीं… चिंता मत करो… मैं आज का पिज्जा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ… खामख्वाह पाँच सौ रूपए उड़ जाएँगे, बासी पाव के उन आठ टुकड़ों के पीछे…
- वा, वा… क्या कहने!! हमारे मुँह से पिज्जा छीनकर बाई की थाली में??
तीन दिन बाद
… पोंछा लगाती हुई कामवाली बाई से पति ने पूछा...
- क्या बाई?, कैसी रही छुट्टी?
- बहुत बढ़िया हुई साहब… दीदी ने पाँच सौ रूपए दिए थे ना.. त्यौहार का बोनस..
- तो जा आई बेटी के यहाँ…मिल ली अपने नाती से…?
- हाँ साब… मजा आया, दो दिन में ५०० रूपए खर्च कर दिए…
- अच्छा!! मतलब क्या किया ५०० रूपए का??
- नाती के लिए १५० रूपए का शर्ट, ४० रूपए की गुड़िया, बेटी को ५० रूपए के पेढे लिए, ५० रूपए के पेढे मंदिर में प्रसाद चढ़ाया, ६० रूपए किराए के लग गए.. २५ रूपए की चूड़ियाँ बेटी के लिए और जमाई के लिए ५० रूपए का बेल्ट लिया अच्छा सा… बचे हुए ७५ रूपए नाती को दे दिए कॉपी-पेन्सिल खरीदने के लिए… झाड़ू-पोंछा करते हुए पूरा हिसाब उसकी ज़बान पर रटा हुआ था…
- ५०० रूपए में इतना कुछ??? वह आश्चर्य से मन ही मन विचार करने लगा...
उसकी आँखों के सामने आठ टुकड़े किया हुआ बड़ा सा पिज्ज़ा घूमने लगा, एक-एक टुकड़ा उसके दिमाग में हथौड़ा मारने लगा… अपने एक पिज्जा के खर्च की तुलना वह कामवाली बाई के त्यौहारी खर्च से करने लगा… पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का, दूसरा टुकड़ा पेढे का, तीसरा टुकड़ा मंदिर का प्रसाद, चौथा किराए का, पाँचवाँ गुड़िया का, छठवां टुकड़ा चूडियों का, सातवाँ जमाई के बेल्ट का और आठवाँ टुकड़ा बच्चे की कॉपी-पेन्सिल का..
आज तक उसने हमेशा पिज्जा की एक ही बाजू देखी थी, कभी पलटाकर नहीं देखा था कि पिज्जा पीछे से कैसा दिखता है… लेकिन आज कामवाली बाई ने उसे पिज्जा की दूसरी बाजू दिखा दी थी… पिज्जा के आठ टुकड़े उसे जीवन का अर्थ समझा गए थे… “जीवन के लिए खर्च” या “खर्च के लिए जीवन” का नवीन अर्थ एक झटके में उसे समझ आ गया…

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बुधवार, 19 मार्च 2014

एक अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता


एक बार हाथ की पाँचों उंगलियों में आपस में झगड़ा हो गया| वे पाँचों खुद को एक दूसरे से बड़ा सिद्ध करने की कोशिश में लगे थे | अंगूठा बोला की मैं सबसे बड़ा हूँ, उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे बड़ी हूँ इसी तरह सारे खुद को बड़ा सिद्ध करने में लगे थे जब निर्णय नहीं हो पाया तो वे सब अदालत में गये |

न्यायाधीश ने सारा माजरा सुना और उन पाँचों से बोला की आप लोग सिद्ध करो की कैसे तुम सबसे बड़े हो? अंगूठा बोला मैं सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा हूँ क्यूंकि लोग मुझे हस्ताक्षर के स्थान पर प्रयोग करते हैं| पास वाली उंगली बोली की लोग मुझे किसी इंसान की पहचान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं| उसके पास वाली उंगली ने कहा की आप लोगों ने मुझे नापा नहीं अन्यथा मैं ही सबसे बड़ी हूँ | उसके पास वाली उंगली बोली मैं सबसे ज़्यादा अमीर हूँ क्यूंकि लोग हीरे और जवाहरात की अंगूठी मुझी में पहनते हैं| इस तरह सभी ने अपनी अलग अलग प्रशंसा की |


न्यायाधीश ने अब एक रसगुल्ला मंगाया और अंगूठे से कहा कि इसे उठाओ, उंगुठे ने भरपूर ज़ोर लगाया लेकिन रसगुल्ले को नहीं उठा सका | इसके बाद सारी उंगलियों ने एक एक करके कोशिश की लेकिन सभी विफल रहे| अंत में न्यायाधीश ने सबको मिलकर रसगुल्ला उठाने का आदेश दिया तो झट से सबने मिलकर रसगुल्ला उठा दिया | फ़ैसला हो चुका था, न्यायाधीश ने फ़ैसला सुनाया कि तुम सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हो और अकेले रहकर तुम्हारी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, जबकि संगठित रहकर तुम कठिन से कठिन काम आसानी से कर सकते हो|



तो मित्रों, संगठन में बहुत शक्ति होती है यही इस कहानी की शिक्षा है, एक अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता.

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बापू का बड़प्पन


यह घटना आजादी के पहले की है। बिहार के चंपारण जिले में इंग्लैंड से आए कुछ अंग्रेज नील की खेती करते थे। वे निलहे कहलाते थे। ये वहां के किसानों पर बड़ा जुल्म ढाते थे और तरह-तरह से उनका शोषण करते थे। इससे वहां के किसान बेहद त्रस्त थे। उनमें से एक किसान ने गांधीजी से चंपारण आने की प्रार्थना की। गांधी जी ने किसान का आग्रह मान लिया। वे निलहों द्वारा वहां के किसानों पर किए जाने वाले जुल्मों की जांच करने के लिए चंपारण पहुंचे। वहां की जनता बापू के आगमन से प्रसन्न हो उठी। लेकिन निलहों को इससे गुस्सा आ गया। वे आग-बबूला हो उठे। पर गांधीजी इन सबसे अविचलित अपने काम में लगे रहे।

एक दिन गांधीजी को पता चला कि पास का एक निलहा उनसे इतना गुस्सा है कि उन्हें मार डालना चाहता है। यह जानकर एक रात गांधी जी स्वयं चल कर उस निलहे की कोठी पर पहुंचे। निलहे ने उनसे पूछा- तुम कौन हो? वह बापू को पहचानता नहीं था। बापू ने सरल भाव से कहा- मैं गांधी हूं। शायद आपने नाम सुना होगा। निलहा आश्चर्यचकित होता हुआ बोला- तुम यहां किसलिए आए हो? गांधीजी ने कहा- सुना है कि आप मुझे मार डालना चाहते हैं। आपको कष्ट न हो इसलिए मैं स्वयं आपके पास आ गया हूं। लीजिए,आप मुझे मार डालिए।

बापू के इन वचनों को सुनकर उस निलहे के होश उड़ गए। उससे कुछ कहते न बना और वह सिर झुकाए बापू के चरणों की ओर देखता रह गया। इसके बाद उसने किसानों को सताना बंद कर दिया। बापू की निडरता व उनके बड़प्पन को वह जीवन भर नहीं भूला।


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फकीर की रोटियां



ईरानी शासक शाह जूसा इतना सरल और परोपकारी था कि संत और फकीर भी उसका खूब सम्मान करते थे। उसकी पुत्री अत्यंत सुंदर और सुशिक्षित थी। अनेक राजाओं ने उससे विवाह की इच्छा जताई थी, पर शाह ने उन सबका प्रस्ताव यह कह कर ठुकरा दिया, 'मुझे पुत्री के लिए राजा नहीं कोई त्यागी पुरुष चाहिए।'

संयोग से कुछ समय बाद ही शाह को एक युवा फकीर मिला। शाह उससे बहुत प्रभावित हुआ और उसने उससे पूछा कि क्या वह शादी करना चाहता है?' फकीर ने हंस कर उत्तर दिया,' करना तो चाहता हूं पर मुझ फकीर से कौन अपनी लड़की की शादी करेगा?' शाह बोला,' मैं आपको अपना दामाद बनाऊंगा।' फकीर ने कहा,' कहां आप राजा, और दूसरी तरफ मैं, जिसके पास आज केवल तीन पैसे हैं। शाह ने कहा, 'जाओ, इन तीन पैसों से शगुन की कुछ चीजें ले आओ।' बड़ी सादगी के साथ शाह ने अपनी पुत्री का विवाह उस फकीर के साथ कर दिया।

शादी करके फकीर शाह की लड़की को अपनी झोंपड़ी में ले आया। फिर उसने पूछा, 'तुम मेरे साथ इस कुटिया में कैसे रहोगी?' लड़की ने कहा,'मेरी खुद ही मर्जी थी सादा जीवन बिताने की। लेकिन आपकी झोंपड़ी में रोटियों का ढेर देख कर मन में ग्लानि सी हो रही है। इतनी रोटियां किसलिए? क्या आपको कल पर भरोसा नहीं है?' फकीर ने उत्तर दिया,'सोचा कुछ रोटियां बचाकर रख लूं। कल काम आएंगी। 

लड़की बोली, 'अगर आप संग्रह की आदत छोड़ दें तो मैं आपकी झोंपड़ी को भी महल समझ कर रह लूंगी।' फकीर ने संग्रह न करने का प्रण किया और दोनो सादगी भरा चिंतारहित जीवन बिताने लगे।

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