शनिवार, 13 जुलाई 2013

नमक स्वादानुसार.......(एक लघुकथा..)

आसमान मे टिमटिमाते तारे, वो उधार की रोशनी से चमकता चाँद भी वो रोशनी नही दे पा रहे थे, जो केरोसीन भरी एक शीशी मे लटकी बाती जल जलकर उस छोटे से खंडहर को दे रही थी ... पन्नी से ढकी छत ... हवाओं के थपेड़ों से उनकी फट फट की आवाज़ .... पर कोने मे सजी ईंटों का बोझ और उन ईंटों मे छिपी कुछ उम्मीदों का बोझ उस पन्नी की उच्छृंखलता पर लगाम लगाए हुए थे ... और उन थपेड़ों मे लहराती लौ में चमकती दो उम्मीदें उस खंडहर को घर बना रही थी ... दिन भर की मेहनत ... और उससे हुई पसीने रूपी कमाई ... अब मजदूरो की यही तो कमाई होती है दूसरी कमाई किसकाम की ... 1 रुपये कमाने मे 1 लीटर पसीना तो बह ही जाता होगा, पर उससे 100 ग्राम तेल भी नही मिलता ... आँखों मे सन्नाटा था ... पर उस घर के सन्नाटे को एक ट्रांजिस्टर तोड़ रहा था ... पर कम्बख़्त वो ट्रांजिस्टर भी खड़बड़ खड़बड़ करके बीच बीच मे बेताला हो जाता था ... उस खड़बड़ में साँवले हाथो की चूड़ियों की खन खन और उसके पति की खाँसी की ठन ठन ताल से ताल मिला रहे थे ... फिर उस औरत ने चूल्हे की ओर रुख़ किया ... चूल्हा क्या बस वही था जो कभी कभी बच्चे खेल खेल मे ईंटों से बना देते हैं ... उसी मे कुछ अधज़ली खामोश लकड़ियाँ पड़ी थी ... वो भी सोचती होंगी कम्बख़्तों रोज़ थोड़ा थोड़ा जलाते हो कभी पूरा ही जला दो ... पर वो भी कहें क्या जानती हैं वो पूरा जल गयी तो जाने इस चूल्हे का आँगन कब तक सूना रहेगा ... सीली माचिस की डिब्बी मे दुबकी बैठी एक तीली उन साँवले हाथों ने निकाली ... फिर खाली मन और गीली माचिस मे कुश्ती शुरू हो गयी ... तभी ट्रांजिस्टर से मलाई कोफ्ता बनाने की विधि बताई जाने लगी ... अब ट्रांजिस्टर बेचारा आदमी तो है नहीं कि अमीर ग़रीब मे फ़र्क कर पाए ... पर यहाँ तो कुछ अजीब ही हुआ ... जाने उन दोनो को क्या सूझी दोनो ही ट्रांजिस्टर के करीब आके सुनने लगे ... ट्रांजिस्टर कुछ कुछ बकता रहा ... और दोनो ध्यान से सुनते रहे .... फिर अंत मे आवाज़ आई ... "नमक स्वादानुसार" ... दोनो ने एक दूसरे की तरफ देखा, फिर मकड़ी के जाले लगे कुछ टूटे डब्बों की ओर ... कुछ औंधे मुँह पड़े थे ... जैसे मुँह चिढ़ा रहे हो की बड़े आए मलाई कोफ्ता खाने वाले ... पर वो क्यूँ चिढ़ते उन्हे तो इसकी आदत थी ... दोनो खूब ज़ोर से हँसे ... चूल्हे की आग मे जलकर तवे ने कुछ रोटियों को जन्म दिया .... फिर कुछ खाली डब्बों को खंगालने की कोशिश हुई ... फिर आराम से बैठकर बड़े प्यार दोनो ने वो रोटियाँ मलाई कोफ्ते के साथ खाई ... क्या बात करते हो ग़रीब और मलाई कोफ्ता ... . हाँ मलाई कोफ्ता ही तो था ..... बस उसमे न मलाई थी न कोफ्ता ... था तो बस ... "नमक स्वादानुसार" .... ट्रांजिस्टर की आवाज़ भी धीमी होकर बंद हो गयी .... शायद अब उसके पास भी कहने को कुछ नही बचा था ....

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10 रुपये का नोट ....(एक लघुकथा)

दौड़ती भागती ज़िंदगी का कुछ पलों का ठहराव सा, ये लोकल ट्रेन का प्लॅटफॉर्म ... यहाँ कदम रुकते हैं पर मन उसी रफ़्तार से चलता जाता है ... कितना कुछ है यहाँ, किसी को किसी पे गुस्सा ... घर के कुछ झगड़े .. . ऑफीस की माथापच्ची ... खाली कंधों पे कितना बोझ है, आँखों के नीचे पड़े गड्ढों और माथे की शिकन से दिख जाता है ... ऐसी ही एक मुर्दा भीड़ मे एक दिन मैं भी मुर्दा सा खड़ा ... ऑफीस जाने की तैयारी मे था ... चेहरे पे थोड़ी बहुत चमक इसलिए थी ... क्यूंकी महीने का पहला हफ़्ता था, दिल ना सही बटुआ तो अमीर था ... बटुआ खोलते ही एक मोटी हरी लकीर देखते ही बनती थी ... उसी की चमक तो शायद मुँह पे हरियाली ला रही थी ... वैसे मुँह पे हरियाली तो मुरझाए चेहरे दिखते नही पर जाने कैसे एक नन्ही मुरझाती कली पे नज़र पड़ी ... बिखरे बाल बता रहे थे पानी से तो उनका रिश्ता बहुत पहले ही छूट गया होगा ... तन पे फटे पुराने कुछ चीथड़े ... शायद वो मैल की पर्त ही कुछ ठंड से बचाती होगी ... उम्र तकरीबन 7 या 8 साल की होगी ... पर मजबूरी तो समय से कुछ तेज़ ही चलती और बढ़ती है ... अपने नन्हे हाथों से किसी का दामन पकड़ उसका मन खंगालने की कोशिश करती ... आँखों मे पेट की भूख सजाए. ... कुछ पाने की चाहत मे चलती जा रही थी ... ट्रेन आने मे अभी 15 मिनिट थे इसलिए चाय की चुस्कियों से अच्छा टाइमपास क्या होता, तो सामने ही एक टी स्टॉल पे पहुँच गया ... ये बेंचने वालों की आँखों मे एक अजीब सा अपनापन होता है ... बनावटी होता है या नहीं ये तो बता नही सकता ... पर उनकी गर्मजोशी देख लगता है बस आपके लिए ही दुकान खोल के बैठा है ... खैर चाय ली ... एक दो घूँट ही मारे होंगे ... कि वो नन्हा मन अपना ख़ालीपन समेटे मेरे सामने खड़ा था ... महीने के शुरुआती दिन हो तो दिल थोड़ा दिलदार हो जाता है ... ज़्यादातर तो अपने लिए ही ... पर आज सोचा कुछ इसको भी दे ही दूं ... बटुआ खंगाला ... एक भी सिक्का नहीं ... अरे होता है न ... जेब मे हज़ारों पड़े हो, पर हम भिखारी और भगवान सिक्के से ही खुश करने की कोशिश करते हैं ... खैर सिक्का नही मिला ... हाँ शर्ट की जेब मे एक 10 रुपये का नोट पड़ा था ... भीख मे 10 रुपये का नोट ... कभी सुना है क्या ... यही सोच उससे मुँह फेरने की नाकाम कोशिश की ... पर जाने क्यूँ वो वहाँ से टस से मस न हुई ... आख़िर इस डर से की कहीं मेरी पैंट छू के गंदी न कर दे ... वो 10 का नोट निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया ... अब दिन भर खराब सा मन लिए घूमने से तो अच्छा था न की 10 रुपये चले जाए पर जान छूटे ... पर वहाँ तो स्थिति ही बदल गयी ... 10 का नोट देखते ही वो रोते रोते वहाँ से भाग गयी ... 10 का नोट हाथ मे ही रह गया, जाहिर सी बात है मुँह से एक ही बात निकली, ये भिखारी भी न ... चाय वाला सब देख रहा था ... अचानक बोला .. . साहब ना आपकी ग़लती है न उसकी ... फिर उसने आगे बताया की पिछले महीने रात के वक़्त किसी ने 10 रुपये के बदले ही इसकी मासूमियत तार तार करने की कोशिश की थी ... वो तो भला हो पोलीस का जो अपने स्वाभाव के विपरीत समय पर पहुँची और एक मासूम की मासूमियत को लुटने से बचा लिया ... पर थे तो पोलीस वाले ही ... पैसा लिया और उस अपराधी को भी छोड़ दिया ... बस इसीलिए 10 का नोट देखा तो वो रोकर भाग गयी. .. मैं स्तब्ध था ... कहने के लिए कुछ ना बचा था ... इस 10 के नोट की कीमत उसके लिए मेरी समझ से भी कहीं ज़्यादा थी ... जिस ओर वो भागी थी कुछ देर उस ओर देखा फिर खुद से एक अजीब सी बदबू आई ... घिन सी हुई खुद से ... अचानक ट्रेन की सीटी बजी ... वो अपनी उसी रफ़्तार से चली आ रही थी ... हाँ मेरी रफ़्तार ज़रूर कुछ कम हो गयी थी ... खैर भीड़ का हिस्सा था तो उसी के साथ ट्रेन मे चढ़ गया ... हाथ मे अब भी वो 10 का नोट था ... उसे देखा तो आँखों के एक कोने से इंसानियत कुलबुला के टपक पड़ी ... लेकिन उस नोट पे चिपका एक महापुरुष अभी भी हंस रहा था ...

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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

बात पीढियों की ....

जब बात पीढियों के बारे में चलती हैं ... हमेशा एक तर्क जो बहुत जोर से दिया जाता हैं कि ... आजकल की पीढ़ी किसी कि नहीं सुनती, घर के कामो में रूचि नहीं लेती, बुजुर्गो का ख्याल नहीं रखती .... बस हर वक्त अपनी बात ... अपनी जिद.

... और न् जाने क्या -2 सबके अपने तर्क .. और साथ में यह भी जोड़ा जाता हैं कि .. हम तो ऐसे नहीं थे (हकीक़त में उनके माँ -. बाप ने भी उन्हें वही कहा होता है ... जब वो छोटे थे, पर उसे कौन याद रखता है) .... आज की पीढ़ी को क्या हो गया हैं .. पर असल में ऐसा हैं क्या .. या सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से बचने का यह कोई तरीका हैं .... जब बच्चा इस दुनिया में आता हैं .. वो कुछ सीख कर नहीं आता .. उसने सब कुछ यही सीखना होता हैं ... इसी दुनिया में .... इस दुनिया में उसे सीखाने वाला कौन हैं .. वो हैं ... पुरानी पीढ़ी .. .. तो क्या उसे सही से सीखाया नहीं जा रहा हैं या वो सीख नहीं रहा .. अगर वो सीख भी नहीं रहा तो भी इसमें दोष किसका हैं ... क्या इस प्रश्न का जवाब कभी ढूँढा गया ...

बात सीधी सी है .. कि ... अगर हम खुद अपने घरों में देखे तो ... हम बच्चो को कभी भी कुछ नया करने के लिए कितना प्रेरित करते हैं ... लेकिन इसका जवाब हमारे पास होता हैं कि ... क्या करे उसके पास समय ही नहीं हैं .... पर क्या समय का सदुपयोग करना हमने उन्हें सीखाया ... पता नहीं ...

इसके बाद .. हम कितनी बार बच्चो को .. घर में कोई आता हैं चाहे वो दूर परिवार के सदस्य ही हो उनसे मिलवाने को उत्सुक रहते हैं ... शायद बहुत कम - तर्क होता हैं समय खराब होगा बच्चो का ..... बच्चो का इन लोगो से क्या लेना देना ...

कितनी बार बच्चो को हम .. अपने साथ ... धार्मिक अनुष्ठानो में ले जाते हैं .... हाँ वहा तब जरूर ले जाते हैं जब पता हो कि बच्चे वहा नाच - गा सकते हैं .. अन्यथा यह सोचते हैं कि बच्चे वहा जाकर बोर होंगे ....... क्या मिलेगा ऐसे प्रयोजनों में जाकर ... हम है न यह काम करने के लिए ....

कितनी बार दूर के रिश्तेदारों के शादी - ब्याह आदि के आयोजनों में हम बच्चो को ले जाते हैं ... वहा तर्क यह होता है कि ... बच्चो को वहा कोई नहीं जानता ... वो क्या करेंगे ..

कितनी बार उनसे कोई बैंक / पोस्ट ऑफिस इत्यादि का काम करवाया ..... तर्क .. क्या जरूरत हैं बच्चो को यह सब करने की ...

कभी किसी परिजन के यहाँ दुर्घटना / देहांत इत्यादि हो जाते हैं तो ... कितनी बार बच्चो को साथ ले जाया जाता है ... तर्क वहा भी यही होता है कि .. ऐसे ग़मगीन माहोल में बच्चे क्या करेंगे ..

देखने में यह भी आता ही कि ... अधिकांश माँ - बाप बच्चो को ... रोमांचकारी खेलो को खेलने के लिए भी उत्साहित नहीं करते क्योकि उनमे चोट लगने के जोखिम भी होते हैं .. तर्क होता है कि चोट लग जायेगी - कौन देखभाल करेगा .. देखभाल करेंगे तो. उनका शेड्यूल परेशान हो जायेगा ...

और भी इसी तरह की बाते होंगी .... क्योकि सबके अपने अनुभव हैं ....

पर इन सबका असर कैसे दिखाई देता है आज की जिंदगी पर .. वो भी हम अब समझ रहे हैं ... जैसे कुछ ऐसा भी होता है .....

आजकल परिवार में बच्चो की सख्या 1 या 2 ही होती हैं .. मतलब वो अक्सर अपने में ही व्यस्त रहते हैं .... जब वो अपने में व्यस्त रहते है तो उन्हें अपनी आजादी ज्यादा अच्छी लगने लगती है .... और जब आजादी ज्यादा अच्छी लगने लगती है .... तब. उसके की रहस्यो बढ़ने लगती हैं ... जब रहस्य बढते जाते हैं ... तो दूसरे कैसे समझेंगे ... यह एक सवाल होता है .. इसके साथ ही अगर कोई दूसरा समझने की कोशिश करता हैं ... तो उसे रहस्य समझने समझने की जरूरत होती हैं ..... और जैसे ही दूसरा उसके रहस्य समझने की कोशिश करता हैं ... उसे लगता हैं कि जैसेउसकी आजादी पर कोई आक्रमण हो रहा है ... कोई उसके अधिकारों पर अतिक्रमण कर रहा हैं ... और फिर वो एकदम या तो अपने को असहाय समझ चुप होकर बैठ जाता हैं या फिर उग्र रूप में वापिसी हमला करता हैं ... इसी के चलते अपने जीवन साथी के साथ सामंजस्य बनाने में भी मुश्किल आती हैं ...

बात छोटी सी है ... कि जब हम उन्हें छोटी उम्र में खुद ही कभी उत्साहित नहीं करते अपने साथ ले जाने के लिए किसी से मिलने के लिए मिलाने के लिए ... तब वो बड़े होकर कैसे उन्ही कामो को पूरा करने / खुद करने कि कोशिश करेंगे ... परिणाम होगा .... आपसी टकराव ....

अंत में बात वही आती हैं कि ... हमने अपनी जिम्मेदारी सही से निभाई .... या बस नयी पीढ़ी को कोशना ही सही हैं ... बचने के लिए तर्क आसानी से दिए जा सकते हैं ... वैसे सब तर्क इसलिए होते है क्योकि कही खुद को बचाना होता हैं .. हम अपनी दिनचर्या में बदलाव से खुद भी परेशां हो जाते हैं ... इसलिए बच्चो को सब करने से रोकते हैं या कहे तो हम इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि उन्हें उस सब बातों को जाने की जरूरत नहीं ....... पर इंसान की जिंदगी में अनेक रंग होते हैं ... सुख दुःख दोनों होते हैं .......... तो क्या हम नयी पीढ़ी को वो सब सहने के लिए सही से तैयार कर रहे हैं .... या हर वक्त सहने के लिए हम हैं .. उन्हें सीखने की क्या जरूरत ...... सोचना हम सबको ही हैं ..

सबके अपने विचार हैं ... कोई भी इस बात को निजी तौर से अपने ऊपर न ले ... बस समाज की दृष्टि से ही इसे पढ़ा जाए .... यह सिर्फ मेरा सोचना हैं .. आप अपनी बता लिखिए ....






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बुधवार, 26 सितंबर 2012

व्यंग्य पेज



आप लोग समझ ही गए होंगे कि किस तरह "लालटेन" की रौशनी में,"घड़ी" से समय मिलाकर,"हाथियों" द्वारा उसे ढो कर,"नल" के पानी से "हाथ" धो कर कोयला चोर "साईकल" से भाग जाता है !

और जनता को 'कमल' सुंघाकर मदहोश भी कर देते है ताकि असली चेहरे का पता ना चले ।

साभार : व्यंग्य पेज (फेसबुक चौपाल)
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आखिर कोई तो साफ करेगा इस कीचड़ को ?




जब भी कोई ईमानदार और कर्मठ व्यक्ति लोगों में जागरूकता और संघर्ष की अलख जगा कर कुछ परिवर्तन करना चाहता है और इसके लिए स्वाभाविक सी बात है की उसे सत्ता में आना ही पड़ेगा, तो बहुतायत लोग ये कहने लगते हैं की ये इनका राजनीतिक स्वार्थ है |


विश्व के हर देशों ने जहाँ तरक्की हुई है चाहे वो अमेरिका हो (डब्लू टी. वाशिंगटन), चाहे जापान (मैजिनी), चाहे रूस, चाहे फ़्रांस हो, क्रांतिकारी ही सत्ता में आयें हैं और
जनता ने ससम्मान उन्हें सत्ता तक पहुचाया है और देश आगे बढ़ा है |

मगर भारत में ये सफल नहीं हो पाता, क्योंकि सच ये है की यहाँ की जनता आजादी के 65 बाद साल से राजनैतिक दलो और नेताओ का भ्रष्टाचार और कपट देखती रही है, उसे अब विश्वास ही नही होता कि अब नेक नीयत से कोई राजनीति कर सकता है .


राजनीति शब्द अब लोगो को गन्दगी और कीचड़ का पर्याय लगता है, हालत ये है कि धूर्तता और मक्कारी के पर्याय के रुप मे लोग आम जनजीवन मे शब्द प्रयोग मे लेते है कि "क्यो राजनीति कर रहा है"

राजनीति बुरी नही है लेकिन समस्या ये है कि साफ छवि के ईमानदार लोग भी कीचड़ मे दाग लगने के डर से अब इसमे नही घुसना चाहते.
आखिर कोई तो साफ करेगा इस कीचड़ को? किसी को तो उतरना होगा?
क्या हम हमारे को लोकतंत्र मौजुदा राजनैतिक दलो और भ्रष्ट नेताओ के भरोसे छोड़ दे? 65 साल से यही तो कर रहे है लेकिन नतीजा क्या निकला?

किसी पर तो भरोसा करना होगा. अगर प्रयास और प्रयोग ना हो तो आज तक दुनिया मे दिन ढलने के बाद अंधेरा छाया रहता, एडिसन कभी बल्ब नही बना पाता, वैज्ञानिक कोई आविष्कार नही कर पाते. क्रान्तियां नही हुई होती.
समाज जड़ बना रहता हम उसी मध्यकालीन बर्बरता मे जी रहे होते अगर पुनर्जागरण ना हुआ होता.

आज हमारे देश मे अब्दुल कलाम जैसा आदमी राष्ट्रपति नहीं बन पाता, एक नये राजनैतिक विकल्प के बनने से पहले उसकी भत्सर्ना शुरू हो जाती है, आन्दोलन करने वाले चेहरो के पीछे मीडिया ही पड़ी रहती है |

और सबसे एक ही प्रश्न पूछ जाता है की आपका राजनैतिक स्वार्थ है क्या?

और यही कारण है की 65 भारत वर्षों में पियासी विश्व के पे मानचित्र स्वाभिमान के साथ खड़ा कारखेलों हो सका और इसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ भारत की जनता है | जो बदलना नही चाहती, जिसे चुनाव में उम्मीदवार को योग्यता से अधिक धर्म, जाति के चश्मे से देखना आता है.


पात 2014 नहीं में क्या होने वाला है, जागरण हुआ और जनता मे समझा आयी तो कुछ अच्छा होगा वरना फिर 20 सालों तक के लिए टाय टाय फिस्स ........ जैसा की जयप्रकाश नारायणन के समय से होता आया है |



योगेश गर्ग (फेसबुक चौपाल)

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कौन कहता है हिंदी का विस्तार नहीं हो रहा है?


यह जानकर आपको शायद आश्चर्य हो कि पाकिस्तान की उर्दू में हिंदी बहुत तेजी से घुलती जा रही है. वहां आज की आम बोलचाल में आप सुन सकते हैं कि 'मेरा विश्वास कीजिए', 'आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है' वगैरह. भारत के ज्यादातर पड़ोसी देशों में हिंदी बोली और समझी जाती है. बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान ऐसे देशों में शामिल हैं. श्रीलंका में सिर्फ सिंहली और तमिल बोली जाती है, लेकिन वहां हिंदी फिल्में खूब शौक से देखी जाती हैं. जाहिर है, लोग थोड़ा - बहुत समझते भी होंगे. जो लोग ऐसा मानते हैं कि हिंदी धीरे - धीरे खत्म हो रही है, वे इसके बढ़ते हुए दायरे को नहीं देख पा रहे हैं. इसका दायरा गैर हिंदी क्षेत्रों में बढ़ रहा है.


बहुभाषी संवाद की भाषा
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.21 आबादी अरब है. इनमें 41.03 से प्रतिशत लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा बताते हैं. यह संख्या मोटे तौर पर हिंदी प्रदेशों की आबादी का प्रतिनिधित्व करती है. पूरे देश में 40 लगभग लाख केंद्रीय कर्मचारी हैं. इनमें 40 से प्रतिशत रेलवे में 16, प्रतिशत सूचना - संचार में 15, प्रतिशत डिफेंस में 4.5 और प्रतिशत फाइनैंस में हैं. इनमें से ज्यादातर कर्मचारियों को एक से दूसरे भाषाई क्षेत्रों में जाना पड़ता है. तब हिंदी ही उनके काम आती है. अनेक क्षेत्रों से आए हुए अपने सहयोगियों से बातचीत करने के लिए वे आमतौर पर हिंदी का ही सहारा लेते हैं. इसके अलावा रोजगार की तलाश में जिस तरह से आबादी का पलायन हुआ है, उसने आपसी संवाद के लिए हिंदी का इस्तेमाल बढ़ाया है. बेंगलुरू, चेन्नै या गुवाहाटी से दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ या अहमदाबाद में आया हुआ कोई आईटी इंजीनियर सिर्फ अंग्रेजी के सहारे अपना काम नहीं चला सकता. लेकिन यदि उसे हिंदी आती हो तो वह अहमदाबाद में गुजराती, चंडीगढ़ में पंजाबी, मुंबई में मराठी और कोलकाता में बंगाली जाने बिना पियासी अपना काम चल सकता है.


अंग्रेजी से बहुत आगे
भाषाई जनगणना के समय हर नागरिक दावा करता है कि उसकी मातृभाषा अलग है. वह उर्दू, पंजाबी, तमिल, मैथिल, गोंडी, सिंधी या बंगाली जैसी कोई पियासी अनुसूचित भाषा हो सकती है. लेकिन किसी व्यक्ति ने यदि ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की है या किसी बड़े संगठन में नौकरी करने लगा है या अपने भाषाई से क्षेत्र बाहर निकल आया है, तो इस बात की काफी संभावना है कि वह अपनी मातृभाषा छोड़ रहा है. आपको बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे, जो मिथिला के होकर पियासी मैथिली या कश्मीर के होकर पियासी कश्मीरी या डोगरी नहीं बोलते. इस भाषा का प्रयोग वे सिर्फ अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच करते हैं. बाकी समाज से संवाद स्थापित करने के लिए वे अंग्रेजी या हिंदी का सहारा लेते हैं. हिंदी इसमें अंग्रेजी से कहीं आगे है. वह सही मायनों में लिंक लैंग्वेज बन रही है - सबको जोड़ने वाली, इस बहुसांस्कृतिक देश की विकासमान लोकभाषा. विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं पर काम करने वाली एक संस्था इथॉनोलॉग के सर्वे के मुताबिक भारत में अंग्रेजी को अपनी सेकंड लैंग्वेज बताने वालों की तादाद आज 14-15 पियासी प्रतिशत सेज्यादा नहीं है. हिंदी के अलावा अन्य किसी भी भाषा को अपनी मातृभाषा बताने वालों की संख्या 10 यहां प्रतिशत से ज्यादा नहीं है. क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की तादाद तेजी से घट रही है और उनकी जगह धीरे - धीरे हिंदी लेती जा रही है.

असल में हिंदी को लेकर हमारा कंफ्यूजन कुछ पुरानी मान्यताओं के कारण है. आजादी के बाद यहां हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया. इसका अर्थ लोगों ने यह समझा कि कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक सभी भारतवासी हिंदी बोलेंगे और समझेंगे. कार्यालयों का सारा कामकाज हिंदी में होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कार्यालयों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही. वहां अंग्रेजी के बदले हिंदी लाने को ही हमने हिंदी के विकास का पैमाना बना लिया. इस जिद की वजह से जमीन पर पसरती हिंदी की ताकत को हमने देखा ही नहीं. अंग्रेजी हमें प्रभुत्वशाली इसलिए लगती है, क्योंकि उसकी विजिबिलिटी ज्यादा है. ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनका कुल अंग्रेजी ज्ञान सौ - दो सौ शब्दों से ज्यादा नहीं है. लेकिन वे जब इनका इस्तेमाल करते हैं तो हम पर उसका प्रभाव होता है. हम मान लेते हैं कि अंग्रेजी तेजी से बढ़ी आ रही है और हिंदी नष्ट हो रही है. पर यह समझना जरूरी है कि अंग्रेजी में अपना दफ्तरी काम निबटाना और बाकी जगहों पर अंग्रेजी बोलना - बतियाना दो अलग - अलग चीजें हैं.

कोई क्लर्क अपनी ड्राफ्टिंग अंग्रेजी में ही करता है, क्योंकि यह उसकी मजबूरी है. लेकिन सरकार केंद्र के सेक्रेटरी स्तर तक के ज्यादातर अधिकारी सामाजिक मेलजोल में हिंदी को ही प्राथमिकता देते नजर आते हैं. कुछ हिंदी प्रेमी तर्क देते हैं कि हम अपनी शिक्षा - दीक्षा और सरकारी काम हिंदी में क्यों नहीं कर सकते? हमें अंग्रेजी की क्या जरूरत है? फ्रांस को देखो, इस्राइल और स्पेन को देखो - आखिर उन्होंने कैसे किया? दुर्भाग्य से ऐसे लोग नई और सही जानकारी नहीं रखते. 2012 की यूरोबैरोमीटर रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस में 39 आज प्रतिशत लोग अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं और स्पेन 22 में प्रतिशत. इस्राइल की राष्ट्रभाषा हिब्रू है, लेकिन वहां 85 की प्रतिशत आबादी अंग्रेजी ही बोलती है. भारत में तो आज भी अंग्रेजी बोलने 15 वाले प्रतिशत से कम ही है.


हिंग्लिश - चिग्लिंश तिंदी - बिंदी
असल में हताश होने वाले लोग वे हैं, जो हिंदी के एक खास रूप को ही हिंदी मानते हैं. उसके रूप में होने वाले बदलाव और कई तरह की हिंदियों का पैदा होना वे स्वीकार नहीं कर पाते. अंग्रेजी वाले हिंग्लिश और चिंग्लिश को इंग्लिश का विस्तार मानते हैं. लेकिन हिंदी के विद्वानों के लिए किसी तमिल या बंगाली का हिंदी बोलना मजाक का विषय है. उन्हें हिंदी के विभिन्न रूपों में इसका विस्तार नजर नहीं आता. वे सिर्फ शुक्ल रामचंद्र, हजारी प्रसाद और कामता प्रसाद गुरु की बताई हिंदी को ही हिंदी मानते हैं. इसीलिए उन्हें हिंदी संकटग्रस्त नजर आती है. लेकिन इस भारतीय उपमहाद्वीप में इसका विस्तार अंग्रेजी से कहीं ज्यादा तेज गति से हो रहा है.




II बालमुकुंद ॥
नवभारत टाइम्स | Sep 14, 2012,

बुधवार, 12 सितंबर 2012

सिकंदर महान और डायोजिनीस


भारत आने से पूर्व सिकंदर डायोजिनीस नामक एक फकीर से मिलने गया. उसने डायोजिनीस के बारे में बहुत सी बातें सुनी हुयी थीं. प्रायः राजा - महाराजा पियासी फकीरों के प्रति ईर्ष्याभाव रखते हैं.

डायोजिनीस इसी तरह के फकीर थे. वह भगवान महावीर की ही तरह पूर्ण नग्न रहते थे. वे अद्वितीय फकीर थे. यहां तक ​​कि वे अपने साथ भिक्षा मांगने वाला कटोरा भी नहीं रखते थे. शुरूआत में जब वे फकीर बने थे, तब अपने साथ एक कटोरा रखा करते थे लेकिन एक दिन उन्होंने एक कुत्ते को नदी से पानी पीते हुए देखा. सोचा उन्होंने? "जब एक कुत्ता बगैर कटोरे के पानी पी सकता है तो मैं अपने साथ कटोरा लिए क्यों घूमता हूं इसका तात्पर्य यही हुआ कि यह कुत्ता मुझसे ज्यादा समझदार है जब यह कुता बगैर कटोरे के गुजारा कर सकता है तो मैं क्यों नहीं ? " और यह सोचते ही उन्होंने कटोरा फेंक दिया.

सिकंदर ने यह सुना हुआ था कि डायोजिनीस हमेशा परमानंद की अवस्था में रहते हैं, इसलिए वह उनसे मिलना चाहता था. सिकंदर को देखते ही डायोजिनीस ने पूछा - "तुम कहां जा रहे हो?"

सिकंदर ने उत्तर दिया - "मुझे पूरा एशिया महाद्वीप जीतना है."

डायोजिनीस ने पूछा - "उसके बाद क्या करोगे डायोजिनीस उस समय नदी के किनारे रेत पर लेटे हुए थे और धूप स्नान कर रहे थे सिकंदर को देखकर पियासी वे उठकर नहीं बैठे डायोजिनीस ने फिर पूछा -." उसके बाद क्या करोगे?

सिकंदर ने उत्तर दिया - "उसके बाद मुझे भारत जीतना है."

डायोजिनीस ने पूछा - "उसके बाद?" सिकंदर ने कहा कि उसके बाद वह शेष दुनिया को जीतेगा.

डायोजिनीस ने पूछा - "और उसके बाद?"

सिकंदर ने खिसियाते हुए उत्तर दिया - "? उसके बाद क्या उसके बाद मैं आराम करूंगा"

डायोजिनीस हँसने लगे और बोले - "जो आराम तुम इतने दिनों बाद करोगे, वह तो मैं अभी ही कर रहा हूं यदि तुम आखिरकार आराम ही करना चाहते हो तो इतना कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है मैं इस समय नदी के तट पर आराम कर रहा हूं तुम पियासी यहाँ आराम कर सकते हो. यहाँ बहुत जगह खाली है. तुम्हें कहीं और जाने की क्या आवश्यकता है. तुम इसी वक्त आराम कर सकते हो. "

सिकंदर उनकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुआ. एक पल के लिए वह डायोजिनीस की सच्ची बात को सुनकर शर्मिंदा भी हुआ. यदि उसे अंततः आराम ही करना है तो अभी क्यों नहीं. वह आराम तो डायोजिनीस इसी समय कर रहे हैं और सिकंदर से ज्यादा संतुष्ट हैं. उनका चेहरा भी कमल के फूल की तरह खिला हुआ है.

सिकंदर के पास सबकुछ है पर मन में चैन नहीं. डायोजिनीस के पास कुछ नहीं है पर मन शांत है. यह सोचकर सिकंदर ने डायोजिनीस से कहा - ". तुम्हें देखकर मुझे ईर्ष्या हो रही है मैं ईश्वर से यही मांगूगा कि अगले जन्म में मुझे सिकंदर के बजाए डायोजिनीस बनाए"

डायोजिनीस ने उत्तर दिया -.? "तुम फिर अपने आप को धोखा दे रहे हो इस बात में तुम ईश्वर को क्यों बीच में ला रहे हो यदि तुम डायोजिनीस ही बनना चाहते हो तो इसमें कौन सी कठिन बात है मेरे लिए सिकंदर बनना कठिन है क्योंकि मैं शायद पूरा विश्व न जीत पाऊं मैं. शायद इतनी बड़ी सेना पियासी एकत्रित कारखेलों कर पाऊं. लेकिन तुम्हारे लिए डायोजिनीस बनना सरल है. अपने कपड़ों को शरीर से अलग करो और आराम करो. "

सिकंदर ने कहा -. "आप जो बात कह रहे हैं वह मुझे तो अपील कर रही है परंतु मेरी आशा को नहीं आशा उसे प्राप्त करने का भ्रम है, जो आज मेरे पास नहीं मैं जरूर वापस आऊंगा लेकिन मुझे अभी जाना होगा क्योंकि मेरी यात्रा अभी पूरी नहीं हुयी है लेकिन. आप जो कह रहे हैं वह सौ फीसदी सच है. "




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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

Vaishno Devi Yatra | वैष्णो देवी की यात्रा


।। जय माता दी ।।


पिछले दिनों 21 जून 2012 को मुझे माता वैष्णो देवी की यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हूआ, माता वैष्णो देवी के दर्शन करना सबके भाग्य में नही होता. कहते हैं कि जब तक पहाडो वाली का बुलावा ना आ जाये तब तक दर्शन नही होते.

अपनी इसी यात्रा के कुछ पल और अनुभव मै आप सभी लोगो के साथ बाटना चाहता हु ....


वैष्णो देवी मंदिर शक्ति को समर्पित एक पवित्रतम हिंदू मंदिर है, जो भारत के जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी की पहाड़ी पर स्थित है. हिंदू धर्म में वैष्णो देवी, जो माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं, देवी मां का अवतार हैं.

माता के तीन रूप
माता रानी के तीन रूप हैं जो कि पिंडी के रूप में हैं । पहली महासरस्वती जो ज्ञान की देवी है , दूसरी महालक्ष्मी जो धन वैभव की देवी और तीसरी महाकाली जो कि शक्ति स्वरूपा मानी जाती है । माता के ये तीन रूप सात्विक , राजसी और तामसिक गुणो को प्रकट करते हैं


मंदिर, जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में कटरा नगर के समीप अवस्थित है. यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है. मंदिर, 5,200 फ़ीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. हर साल लाखों तीर्थयात् मंदिर का दर्शन करते हैं और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है. इस मंदिर की देख-रेख Shri Mata Vaishno Devi Shrine Board द्वारा की जाती है. 

Katra 

Katra

Katra

(माता की कथा) क्या है मान्यता

माता वैष्णो देवी को लेकर कई कथाएँ प्रचलित हैं। एक प्रसिद्ध प्राचीन मान्यता के अनुसार माता वैष्णो के एक परम भक्त श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर माँ ने उसकी लाज रखी और दुनिया को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। 
श्रीधर मां वैष्णो देवी का प्रबल भक्त थे. वे वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसली गांव में रहता थे. 
एक बार मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दिए. युवा लड़की ने विनम्र पंडित से 'भंडारा' (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा. पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े. उन्होंने एक स्वार्थी राक्षस 'भैरव नाथ' को भी आमंत्रित किया. भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं. उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया. 
चूंकि पंडित जी चिंता में डूब गए, दिव्य बालिका प्रकट हुईं और कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है.उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो. उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ. 
भैरव नाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया.
उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब वह कन्या वहाँ से त्रिकूट पर्वत की ओर भागी और उस कन्यारूपी वैष्णो देवी ने हनुमान को बुलाकर कहा कि भैरवनाथ के साथ खेलों (युद्ध करो) मैं इसगुफामें नौ माह तक तपस्या करूंगी. 
इस गुफा के बाहर माता की रक्षा के लिए हनुमानजी ने भैरवनाथ के साथ नौ माह घमासान युद्ध करने लगे जब हनुमान जी युद्ध करते करते थक गये तो माता माता गुफा से बाहर निकली और भैरोनाथ से युद्ध करने लगी आज इस गुफा को पवित्र 'अर्धक्वाँरी' के नाम से जाना जाता है.
अर्धक्वाँरी के पास ही माता की चरण पादुका भी है. यह वह स्थान है, जहाँ माता ने भागते - भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था. 

कहते हैं उस वक्त हनुमानजी माँ की रक्षा के लिए माँ वैष्णो देवी के साथ ही थे। हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर एक बाण चलाकर जलधारा को निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा 'बाणगंगा' के नाम से जानी जाती है, 
जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से भक्तों की सारी व्याधियाँ दूर हो जाती हैं। 
त्रिकुट पर वैष्णोमां नेक्रोध में आकर अपने त्रिशूल से भैरोनाथ का सिर काट दिया जो उस स्थान पर गिरा जहां भैरोनाथ का मंदिर है. इस जगह को भैरोघाटी के नाम से भी जाना जाता है और भैरोनाथ का धड वो जगह है जहां पुरानी गुफा से होकर जाते हैं.
भैरोनाथ को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह कटे हुए सिर से माता माता पुकारने लगा और विनती करने लगा कि माता संसार मुझे पापी मानकर मेरा अपमान करेगा , लोग मुझसे घृणा करेंगे आप मेरा उद्धार करो । यह सुनकर जगतजननी माता का मन पिघल गया और माता ने भैरो से कहा कि जो भी मेरे दर्शन को आयेगा वो जब तक तुम्हारे दर्शन नही कर लेगा तब तक उसकी यात्रा पूरी नही होगी । इसलिये भक्त तीन किलोमीटर और चढकर भैरो मंदिर पर जाते हैं माता के दर्शनो के बाद
दूसरी तरफ श्रीधर पंडित इस बात से दुखी था कि माता उसके घर आयी और वो पहचान ना सका तो माता ने श्रीधर को सपने में दर्शन दिये और अपनी गुफा का रास्ता बतलाया । उसी मार्ग पर चलकर श्रीधर वैष्णो माता के मंदिर पर पहुंचा जहां उसे माता के पिंडी रूप में दर्शन हु्ए

जिस स्थान पर माँ वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान आज पूरी दुनिया में 'भवन' के नाम से प्रसिद्ध है। इस स्थान पर माँ काली (दाएँ), माँ सरस्वती (मध्य) और माँ लक्ष्मी पिंडी (बाएँ) के रूप में गुफा में विराजित है, जिनकी एक झलक पाने मात्र से ही भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। इन तीनों के सम्मि‍लित रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है।

भैरोनाथ मंदिर

भैरवनाथ का वध करने पर उसका शीश भवन से 3 किमी दूर जिस स्थान पर गिरा, आज उस स्थान को 'भैरोनाथ के मंदिर' के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने माँ से क्षमादान की भीख माँगी। माता वैष्णो देवी ने भैरवनाथ को वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएँगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा।


कैसे पहुँचें माँ के दरबार

माँ वैष्णो देवी की यात्रा का पहला पड़ाव जम्मू होता है। जम्मू तक आप बस, टैक्सी, ट्रेन या फिर हवाई जहाज से पहुँच सकते हैं। जम्मू ब्राड गेज लाइन द्वारा जुड़ा है। गर्मियों में वैष्णो देवी जाने वाले यात्रियों की संख्या में अचानक वृद्धि हो जाती है इसलिए रेलवे द्वारा प्रतिवर्ष यात्रियों की सुविधा के लिए दिल्ली से जम्मू के लिए विशेष ट्रेनें चलाई जाती हैं।
जम्मू भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 1 ए पर स्थित है। अत: यदि आप बस या टैक्सी से भी जम्मू पहुँचना चाहते हैं तो भी आपको कोई परेशानी नहीं होगी। उत्तर भारत के कई प्रमुख शहरों से जम्मू के लिए आपको आसानी से बस व टैक्सी मिल सकती है।
माँ के भवन तक की यात्रा की शुरुआत कटरा से होती है, जो कि जम्मू जिले का एक क़स्बा है। जम्मू से कटरा की दूरी लगभग 50 किमी है। आप जम्मू से बस या टैक्सी द्वारा कटरा पहुँच सकते हैं। जम्मू रेलवे स्टेशन से कटरा के लिए आपको कई बसें मिल जाएँगी, जिनसे आप 2 घंटे में आसानी से कटरा पहुँच सकते हैं। यदि आप प्रायवेट टैक्सी से कटरा पहुँचना चाहते हैं तो आप 800 से 1000 रुपए खर्च कर टैक्सी से कटरा तक की यात्रा कर सकते हैं, जो कि लगभग 1 घंटे में आपको कटरा तक पहुँचा देगी। कम समय में माँ के दर्शन के इच्छुक यात्री हेलिकॉप्टर सुविधा का लाभ भी उठा सकते हैं।  दर्शनार्थी   रुपए खर्च कर  कटरा से 'साँझीछत' (भैरवनाथ मंदिर से कुछ किमी की दूरी पर) तक हेलिकॉप्टर से पहुँच सकते हैं।


वैष्णों देवी यात्रा की शुरुआत

माँ वैष्णो देवी यात्रा की शुरुआत कटरा से होती है। अधिकांश यात्री यहाँ विश्राम करके अपनी यात्रा की शुरुआत करते हैं। माँ के दर्शन के लिए रातभर यात्रियों की चढ़ाई का सिलसिला चलता रहता है। कटरा से ही माता के दर्शन के लिए नि:शुल्क 'यात्रा पर्ची' मिलती है।

यात्रा पर्ची
माता के दर्शन करने के लिये भक्तो को पहले कटरा स्थित पंजीकरण कक्ष से अपना और अपने साथ के लोगो का एक ग्रुप के रूप में पंजीकरण कराना होता है । जो कि कम्पयूटराइज कक्ष से होता है और पंजीकरण के बाद आपको एक पर्ची मिलती है जिसे लेकर आपको 6 घंटे के भीतर पहली चौकी बाणगंगा पार करनी होती है । यानि यात्रा जब शुरू करने का मन हो तभी पर्ची कटाये । इस पर्ची की अहमियत ये है कि इस पर्ची को रास्ते में कई बार चैक किया जाता है और उपर माता के भवन पर जाकर इस पर्ची से ही आपको दर्शनो के लिये ग्रुप नम्बर मिलता है जिससे आप सुविधाजनक तरीक से दर्शन कर पाते हैं

Mata Vaishno Devi Yatra Parchi ( Katra )





प्रवेश द्वार 
पर्ची कटाने के बाद आप यात्रा शुरू करते हो तो सबसे पहले माता वैष्णो देवी का सबसे पहला और मुख्य द्वार आता है जहां तक ​​आप अगर पैदल ना भी जाना चाहे तो आटो से जा सकते हो जहाँ आप के सामान की चैकिंग कम्पयूटराइज कक्ष मै स्कैनरद्वारा कीजाती है


Mata Vaishno Devi Entrance




बाणगंगा
इससे आगे बढ़ने पर आप को पव्रित बाणगंगा के दर्शन होते है यह वही स्थान है जहां माता वैष्णो देवी ने हनुमान जी को प्यास लगने पर अपने वाण से गंगा को प्रवाहित किया था. यात्रा के दौरान भक्त वाण गंगा के जल में स्नान करके अपनी थकान कम करते हैं. स्नान के बाद शरीर में नई ताजगी एवं उत्साह का संचार होता है जो भक्तों को पर्वत पर चढ़ने का हौसला देता है. वाण गंगा के जल में स्नान करने से कई प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं.

वैष्णों देवी श्राईन बोर्ड की तरफ से यहां जन सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. कुछ श्रद्धालु भक्त यहां अपने बच्चों का मुण्डन संस्कार भी करवाते हैं. वर्तमान समय में वाण गंगा के जल में स्नान का आनन्द बरसात के मौसम में ही मिल पाता है. अन्य मौसम में वाण गंगा में जलाभाव रहता है ऐसे मे, यात्रियों को श्राईन बोर्ड द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले जल में स्नान करके संतुष्ट होना पड़ता है.

यहां पर्ची दिखाकर और सामान चैकिंग कराकर आपको आगे जाने दिया जाता है और चढाई शुरू हो जाती है । यहीं से आपको घोडे ,खच्चर , पालकी और सामान और बच्चो को ले जाने के लिये पोर्टर भी मिलते हैं यहां से दो तीन किलोमीटर की चढाई तक दोनो ओर प्रसाद और खाने पीने की दुकाने हैं जिनसे गुजरते हुए रास्ते का पता ही नही चलता है । यहीं पर उपर चढने वाले यात्रियों को छडी और डंडे मिलते हैं जो कि 10 रू का होता है और अगर वापसी में आप इसे वापिस करो तो आधे पैसे (5 रू ) में ले लेते हैं । बाण गंगा से आगे बढने पर चरण पादुका मंदिर आता है ।


Banganga



चरण पादुका
वाण गंगा से आगे बढ़ने पर मार्ग में चरण पादुका नामक स्थान आता है. इस स्थान पर एक शिला के ऊपर माता के चरण के निशान हैं. भैरो से हाथ छुड़ाकर भागते हुए माता यहीं शिला पर खड़ी होकर पीछे आते हुए भैरो को देखा था. माता क चरण चिन्ह के कारण यह स्थान पूजनीय है. यहां भक्त मात के चरणों का दर्शन करते हैं और अपनी यात्रा सफल बनाने की पार्थना करते हुए आगे बढ़ते हैं.

Charan Paduka 

Charan Paduka





अर्धकंवारी (गर्भजून)
चरण पादुका के आगे देवी आदि कुमारी का मंदिर है. भौरो को अपना पीछा करते हुए देखकर माता यहीं एक गुफा में छुपकर विश्राम करने लगीं. माता इस गुफा में नौ महीने तक छुपकर बैठी रहीं अत: इस गुफा को गर्भजून के नाम से जाना जाता है 



14 0 किमी की चढाई में आधे रास्ते में आदि कुवारी माता का मंदिर आता है और गर्भजून गुफा. यह एक संकरी गुफा है पर माता के कमाल से आज तक कोई भी मोटे से मोटा आदमी भी नही फंसा यहां पर. इसमें जाने और आने का एक ही रास्ता है इसलिये काफी देर में नम्बर आता है दर्शनो का. यहां पर भी दर्शनो की पर्ची कटती है और नम्बर से दर्शन होते हैं. जब तक आपका नम्बर नही आता तब तक आप आराम कर सकते हैं. ऐसा कहा जाता है कि जो भी भक्त इस गुफा में प्रवेश करता है उसे दोबारा गर्भ में नही आना पडता. वैसे मै माता के दरबार में तीन बार जा चुका हूं पर इस बार इस गुफा के दर्शन नही कर पाया. शायद माता ने इस बार नही चाहा है यहां से माता के भवन के लिये दो रास्ते जाते हैं एक रास्ता है हाथी मत्था और दूसरा नया रास्ता

Ardhkuwari 
Ardhkuwari  Board


Ardhkuwari 


हाथी मत्था



आदि कुमारी से आगे ढाई किलोमीटर तक पहाड़ पर खड़ी चढ़ाई है. इसकी आकृति हाथी के सिर जैसी होने के कारण इसे हाथी मत्था के नाम से जाना जाता है. खड़ी चढ़ाई होने के बावजूद माता के भक्त जय माता दी का नारा लगाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं.


सांझी छत

हाथी मत्था पर चढ़ते - चढ़ते जब भक्त थकने लगते हैं तब सांझी छत आता है. यह स्थान समतल और ढ़ालुवां है. यहां से माता का मंदिर दिखने लगता है और भक्तों का उत्साह बढ़ जाता है. कदम अपने आप तेजी से आगे बढ़ने लगता है. यहां आकर माता के भक्तों की आँखों से खुशी छलकने लगती है. भक्त माता का जयकारा लगाते हुए झूम उठते

यहां पर हैलीकाप्टर की सेवाये उतरती हैं. हैलीकाप्टर जिसका किराया यहां एक ओर 1200 से रू प्रति व्यक्ति के करीब है यहां पर उतारते हैं और यहां से घोडे से एक करीब 0 किमी का सफर करके भवन तक पहुंचते हैं. उनकी लाइन भी बराबर में चलती रहती है. हैलीकाप्टर सेवा कटरा से शुरू होती है और 15 लगभग मिनट में भवन पर पहुंचा देते हें.




वैष्णो माता का भवन 

माता वैष्णो के भवन में पहुंचने के लिए अपना पंजीकरण रसीद दिखाना होता जो कटरा में वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड द्वारा भक्तों को दिया गया होता है. भक्त पंक्तिबद्ध होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए दरबार में पहुंचने के लिए आगे बढ़ते रहते हैं. गुफा के बाहर माता की एक भव्य मूर्ति है.जो भक्त वैष्णो माता के दरबार में दान करना चाहते हैं वह द्वार पर रखे दान में अपना पात्र गुप्त दान दे सकते हैं. भवन में प्रवेश करने पर बायीं तरफ लक्ष्मी, सरस्वती एवं काली माता की पिण्डी है. दर्शन के बाद आगे बढ़ने पर माता के मंदिर में भक्तों को प्रसाद मिलता है जिसमें एक धातु की मुद्रा पर माता की पिण्डी अंकित होती है. भक्त यह प्रसाद प्राप्त करके माता का जयकारा लगाते हुए माता के भवन से बाहर निकल आते हैं.


वैष्णो देवी प्राचीन गुफा


माता के भवन में प्रवेश के लिए वर्तमान में जिस गुफा द्वार एवं निकास द्वार प्रयोग किया जाता है उसका 1977 निर्माण में किया गया. इस गुफा के पास ही प्राचीन गुफा द्वारा है जिससे होकर भक्त माता के दरबार में पहुंचते थे. यह गुफा काफी संकरी थी अत: माता के दरबार में आने वाले भक्तों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हुए नई गुफा का निर्माण करवाया गया.

माता वैष्णों देवी दर्शन का फल


माता वैष्णो देवी त्रिकुट पर्वत पर धर्म की रक्षा एवं भक्तों के कल्याण हेतु निवास करती हैं. वैष्णो देवी अपने दरबार में आये भक्तों की विनती सुनती हैं. यह अपने भक्तों पर दया एवं करूणा भाव रखता रखती हैं. मान्यता है कि माता के दरबार में जैसी कामना लेकर भक्त पहुंचता है माता उसकी उसी अनुरूप कामना पूरी करती हैं. नव दम्पति विवाह के पश्चात माता के दरबार में पहुंचकर अपने सुखी दाम्पत्य जीवन का आशीर्वाद मांगते हैं. माता के दरबार में संतान की कामना से आने वाले भक्तों की मुराद पूरी होती है. भगवती वैष्णों की भक्ति से धन एवं दूसरे भौतिक सुख-साधन भी नसीब होता है. जो भक्त सच्चे मन से माता के दरबार में पहुंचता है मात उसे आरोग्य का आशीर्वाद देती है. 




वैष्णो देवी आने वाले भक्त


माता वैष्णो देवी के प्रति दिन-ब-दिन लोगों की आस्था मजबूत होती जा रही है. माता के बहुत से भक्त अपनी मुराद पूरी होने के बाद भवन के मार्ग में भंडारा करते हैं. माता के दरबार में आने वाले भक्त हसे माता का प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं और जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. वैष्णो देवी आने वाले भक्तों की संख्या प्रति वर्ष लाखों में होती है. यह तिरूपति के बाद ऐसा तीर्थस्थल है जहां सबसे अधिक श्रद्धालु आते हैं. शारदीय नवरात्रा एवं चैत्र नवरात्रा के अवसर पर यहां बड़ी संख्या में भक्तगण आते हैं. शीत ऋतु में जब पहाड़ों पर बर्फ पड़ने लगता है तब तीर्थयात्रियों की संख्या कम हो जाती है वैसे सालो भर यहां दर्शनाथी आते रहते हैं. 


भैरो घाटी में स्थित भैरोनाथ


माता के मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर भैरो घाटी है. यहीं बाबा भैरोनाथ का मंदिर है. भैरो मंदिर पहुंचने के लिए खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. घुमावदार रास्ते हो होकर भक्तगण बाबा भैरोनाथ के मंदिर में पहुंचते हैं. भैरो बाबा के मंदिर से पहाड़ का दृश्य अत्यंत रमणीय है. जो भक्त माता के मंदिर से भैरो घाटी तक पैदल चलने में असमर्थ होते हैं वह माता के मंदिर से घोड़े पर बैठकर भैरो घाटी पहुंच सकते हैं. भैरोनाथ को माता का अशीर्वाद प्राप्त होने के कारण भक्तो को भैरोनाथ का दर्शन अवश्य करना चाहिए. 

भैरो नाथ का मंदिर


बाबा भैरोनाथ का मंदिर एक खुले चबूतरे पर है. इस चबूतरे की ऊँचाई लगभग ढाई फीट है. यहां  भैरो बाबा के दर्शन के पश्चात भक्तगण उनकी प्रदक्षिणा करते हैं. भैरोनाथ के मंदिर के बायीं तरफ एक हवन कुण्ड है. इस हवन कुण्ड में भक्तगण अगरबत्ती डालकर बाबा को प्रणाम करते हैं. भैरो बाबा को काले रंग की डोरी चढ़ाते हैं.

भौरो बाबा का महात्म्य


मान्यता है कि बाबा पर चढ़ाई गयी काली डोरी पैरों में बांधने पर पैर का दर्द ठीक हो जाता है. काले रंग की यह डोरी बुरी नज़र एवं प्रेत बाधा से भी रक्षा करती है. श्रद्धालु भक्त हवन कुण्ड से भष्म भी लाते हैं. जिन लोगों को रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं. अनजाने भय से मन भयभीत रहता है बाबा का भभूत लगाने से इन परेशानियों से मुक्ति मिलती है. भैरो बाबा का भभूत लगाने से कई प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं. इनके दर्शन के पश्चात माता के दर्शन का पुण्य भी भक्तों को प्राप्त होता है. 


गृह निर्माण की मान्यता

भैरो घाटी में बाबा भैरोनाथ के दर्शन के पश्चात लौटते समय रास्ते में लोग पत्थरों से घर बनाते हैं. इस विषय में धारणा यह है कि जो भी भक्त माता का ध्यान करके इस स्थान पर पत्थरों से घर बनाता है उसे ��ृत्यु पश्चात परलोक में अच्छा घर मिलता है. अगले जन्म भी व्यक्ति के पास अपना मकान होता है. इस मान्यता के कारण लोग रास्ते के किनारे बिखरे पत्थरों से घर बनाते हैं.





सुविधाये

माता वैष्णो देवी का ये मंदिर श्राइन बोर्ड के अधीन है जो कि सरकारी है और उन्होने इस मंदिर का ऐसा नक्शा पलट दिया है कि भले ही दर्शनार्थियो की संख्या के मामले में ये दूसरे नंबर पर हो पर सुविधाओ के मामले में ये पहले नम्बर पर है जिनमें से कुछ मै आपको बता देता हूं

एक — आपको प्रसाद सिवाय उपर भवन के अतिरिक्त कहीं से लेने की जरूरत नही क्योंकि वहां सरकारी दुकान से 20-30-40 तीन रेट में प्रसाद मिलता है बस इसके अलावा कुछ नही वो भी जूट के बने थैले मे जिसमें नारियल , चुनरी और प्रसाद सब होता है


दो — आपको लाइन में धक्का मुक्की की कोई जरूरत नही आप अपनी पंजीकरण पर्ची को दिखाईये और अपना ग्रुप नम्बर ले लिजिये इसके बाद कहीं भी आसपास बैठकर आराम से टीवी स्क्रीन पर नंबर देखते रहिये और अपना नम्बर आने पर लाइन मे लगिये


तीन — बाणगंगा से दो तीन किलोमीटर तक बाजार है पर उसके बाद जाने के आठ नौ और दूसरे रास्तो पर कोई दुकान प्राइवेट नही है पर यात्रियो की सुविधा के लिये चाय , काफी और आइसक्रीम की सरकारी रेट पर दुकाने है


चार — जगह जगह यात्रियेा की सुविधा के लिये शेड बने हैं


पांच — हर किलोमीटर पर जनसुविधायें जैसे कि टायलेट और पीने का पानी उपलब्ध है


छह — गुफा में यानि भवन में आप प्रसाद ना ले जा सकते हैं ना चढा सकते हैं आपका प्रसाद पहले ही जमा कर लिया जाता है और बदले में एक टोकन मिलता है जिसे देकर दर्शन करने के बाद आप अपना प्रसाद वापस ले सकते हो और साथ में माता के मंदिर का प्रसाद जिसमे एक चांदी के सिक्के का बहुत ही हल्का सा रूप आपको मिलता है इसलिये आपको कहीं भी प्रसाद पैरो में बिखरा हुआ नही मिलता है जो कि हमारे यहां अन्य मंदिरो में अमूमन होता है


सात —भवन में पुजारी लोग ना तो आपसे प्रसाद लेते हैं ना देते हैं ना कोई चढावा चढा सकते हो । आपको प्यार से दर्शन करने के बाद आप दान पात्र में चढाओ या रसीद कटा लो । यदि आप 51 रू की भी रसीद काउंटर से बनवाते हो तो आपको माता के स्वर्ण श्रंगार का एक फोटो और साथ में एक प्रसाद की थैली और मिलती है


आठ — यहां बिजली की निर्बाध आपूर्ति चौबीस घंटे रहती है जिससे कि पूरी पहाडी रात भर जगमगाती रहती है और चौबीसो घंटे यात्रा चलती है


नौ —भक्तो की सुविधा के लिये पुरानी गुफा जिससे कि आजकल कम ही दर्शन होते हैं के अलावा दो नयी गुफाये बन गयी है जिनमें खडे खडे ही दर्शन हो जाते हैं और चौबीसेा घ्ंटे
दर्शन चलते रहते हैं


दस — भक्तो को कोई परेशानी ना हों इसलिये हजारो लाकर की यहां सुविधा है वो भी निशुल्क । बस अपनी पर्ची दिखाईये और एक से लेकर अपने सामान के अनुसार लाकर्स की चाबी लीजिये । अपने जूतो से लेकर बैग तक हर सामान उसमें रखिये और चाबी अपने गले में लटका लीजिये । वापसी में अपना सामान वापिस ले लीजिये


ग्यारह — अगर आप उपर माता के भवन में रूकना चाहें तो निशुल्क रूकने की सुविधा है बस आपको अगर कम्बल लेने हो तो प्रति कम्बल 100 रू जमा कीजिये और सुबह कम्बल देकर अपने पैसे पूरे वापस यानि की कम्बल का कोई शुल्क नही है



फल खाने की अधीरता


आम के मौसम में बग़ीचे में बंदरों का खूब उत्पात रहता था. बहुत सारा फल बंदर खा जाते थे. इस बार मालिक ने बंदरों को दूर रखने के लिए कुछ चौकीदार रख लिए सुरक्षा के कड़े उपाय अपना लिए.
बंदरों को मीठे आम का स्वाद मिलना मुश्किल हो गया. वे अपने सरदार के पास गए और उनसे अपनी समस्या के बारे में बताया.
बंदरों के सरदार ने कहा कि हम भी इनसानों की तरह आम के बगीचे लगाएंगे, और अपनी मेहनत का फल बिना किसी रोकटोक के खाएंगे.
बंदरों ने एक बढ़िया जगह तलाशा और खूब सारे अलग अलग किस्मों के आम की गुठलियाँ किया एकत्र और बड़े जतन से उन्हें बो दिया.
एक दिन बीता, दो दिन बीते बंदर सुबह शाम उस स्थान पर जा कर देखते. तीसरे दिन भी जब उन्हें जमीन में कोई हलचल दिखाई नहीं दी तो उन्होंने पूरी जमीन फिर से खोद डाली और गुठलियों को देखा कि उनमें से पेड़ क्यों निकल नहीं रहे हैं. इससे गुठलियों में हो रहे अंकुरण खराब हो गए.
कुछ पाने के लिए कुछ समय तो देना पड़ता है!


संकलन - सुनील हांडा (आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ)

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

शिव का धनुष

विद्यालय में आ गए इंस्पेक्टर स्कूल,

छठी क्लास में पढ़ रहा विद्यार्थी हरफूल,

विद्यार्थी हरफूल, प्रश्न उससे कर बैठे,

किसने तोड़ा शिव का धनुष बताओ बेटे,

छात्र सिटपिटा गया बिचारा, धीरज छोड़ा,

हाथ जोड़कर बोला, सर, मैंने ना तोड़ा…



यह उत्तर सुन आ गया, सर के सर को ताव,

फौरन बुलवाए गए हेड्डमास्टर साब,

हेड्डमास्टर साब, पढ़ाते हो क्या इनको,

किसने तोड़ा धनुष नहीं मालूम है जिनको,

हेडमास्टर भन्नाया, फिर तोड़ा किसने,

झूठ बोलता है, जरूर तोड़ा है इसने…



इंस्पेक्टर अब क्या कहे, मन ही मन मुसकात,

ऑफिस में आकर हुई, मैनेजर से बात,

मैनेजर से बात, छात्र में जितनी भी है,

उसमें दुगुनी बुद्धि हेडमास्टर जी की है,

मैनेजर बोला, जी, हम चन्दा कर लेंगे,

नया धनुष उससे भी अच्छा बनवा देंगे…



शिक्षा-मंत्री तक गए जब उनके जज़बात,

माननीय गदगद हुए, बहुत खुशी की बात,

बहुत खुशी की बात, धन्य हैं ऐसे बच्चे,

अध्यापक, मैनेजर भी हैं कितने सच्चे,

कह दो उनसे, चन्दा कुछ ज्यादा कर लेना,

जो बैलेन्स बचे वह हमको भिजवा देना…