सोमवार, 11 जून 2012

वकील और दादी माँ


वकीलों को दादी माँ से ऐसे प्रश्न करने ही नहीं चाहिए थे जिनके उत्तर वे सुन न सकें। एक छोटे शहर की अदालत में अभियोजन पक्ष के वकील ने अपने पहले गवाह के रूप में एक बुजुर्ग दादी माँ को कटघरे में बुलाया।

उनके पास जाकर वकील ने उनसे पूछा - “श्रीमती जोन्स, क्या आप मुझे जानती हैं? “

दादी ने उत्तर दिया - “हां-हां क्यों नहीं मि. विलियम्स! मैं तुम्हें तब से जानती हूं जब तुम जवान थे। और यदि मैं साफ-साफ कहूं तो तुमने मुझे बहुत निराश किया है। तुम झूठे हो, तुमने अपनी पत्नी को धोखा दिया है, तुम लोगों से झूठ बोलकर उन्हें फुसलाते हो और पीठ पीछे उनकी बुराई करते हो। तुम अपने आप को तीसमार खां समझते हो जबकि तुम्हारे पास इतनी भी अक्ल नहीं है कि अपने आप को समझ सको। हां मैं तुम्हें जानती हूं मि. विलियम्स! “

वकील भौचक्का रह गया! जब उसे कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करे, उसने बचाव पक्ष के वकील की ओर इशारा करते हुए पूछा - “श्रीमती जोन्स, क्या आप बचाव पक्ष के वकील को जानती हैं? “

दादी ने फिर उत्तर दिया - “क्यों नहीं, जरूर जानती हूं! मैं मि. ब्रैडले को उनकी जवानी के समय से जानती हू। वे आलसी, कट्टर और शराबी हैं। वे किसी से भी सामान्य संबंध नहीं रख सकते और उनकी वकालत पूरे राज्य में सबसे खराब है। यह कहने की बात नहीं है कि उन्होंने अपनी पत्नी को धोखा दिया है और उसके तीन महिलाओं के साथ संबंध रहे हैं जिसमें से एक तुम्हारी पत्नी है। हां मैं उसे जानती हूं! “

बचाव पक्ष का वकील सन्न रह गया।

यह सुनकर जज महोदय ने दोनों वकीलों को अपने नजदीक बुलाया और धीरे से कहा - “खबरदार जो तुम लोगों ने उस महिला से मेरे बारे में पूछा। मैं तुम दोनों को हवालात भेज दूंगा। “

आइए, ऑनलाइन हो जाएं...


पूरी दुनिया ऑनलाइन होने की ओर भाग रही है. बची खुची कसर मेरे मोहल्ले के धोबी और नाई ने अभी हाल ही में पूरी कर दी. कल मैं प्रेस के लिए कपड़े डालने गया तो पाया कि उस दुकान का नया नामकरण हो गया है - सबसे-सफेद-धुलाई-डॉट-कॉम. बात दुकान के नए नामकरण की होती तो फिर भी ठीक था. काउंटर पर जहाँ अपने रामू काका कपड़े देते लेते थे और जिस होशियारी से हजारों की संख्या में एक जैसे कपड़ों में से प्रत्येक ग्राहक को उसके सही कपड़े निकाल देते थे, वहाँ एक अदद कंप्यूटर कब्जा जमाया बैठा था और सामने बैठा था एक ऑपरेटर.

मैंने उस ऑपरेटर से अपने कपड़े के बारे में पूछा. तो उसने मुझे ज्ञान दिया कि अब दुकान फुल्ली ऑनलाइन हो गई है और अब आप घर बैठे अपने कंप्यूटर से अपन कपड़े की वर्तमान स्थिति के बारे में पता कर सकते हैं कि वो धुल चुकी है, इस्तरी के लिए गई है या फिर अभी धोबी-घाट में पटखनी खा रही है. तो मैंने उससे पूछा कि भइए, जरा अपने कंप्यूटर में देख कर मेरे कपड़े की वर्तमान पोजीशन बताओ जो मैंने इस्तरी के लिए पिछले दिन दिए थे. वह पलट कर बोला घंटे भर बाद आना, अभी तो सर्वर डाउन है.

मोहल्ले के नाई की स्थिति भी कोई जुदा नहीं थी. जब सिर के चंद बचे खुचे बाल भी जब बीवी को लंबे लगने लगे और उन्होंने कई कई मर्तबा टोक दिया तो लगा कि अब तो कोई चारा बचा नहीं है तो नाई की दुकान की ओर रूख किया गया. महीने भर से नाई की दुकान की ओर झांका नहीं था और जब आज पहुंचा तो वहाँ मामला कायापलट सा था.

एक बड़े मॉनीटर के सामने बिल्लू बारबर व्यस्त था. वो मेरे मोहल्ले के ही एक मजनूँ टाइप बेरोजगार को स्क्रीन पर विभिन्न हेयरस्टाइल उसके चेहरे के चित्र पर जमा-जमा कर बता रहा था कि कैसे वो इस कंप्यूटर में डले इस लेटेस्ट सॉफ़्टवेयर के जरिए उसका लेटेस्ट टाइप का हेयरस्टाइल बना देगा जिससे वो मजनूँ मोहल्ले में और ज्यादा लेटेस्ट हो जाएगा. मजनूँ बड़ी ही दिलचस्पी से हर हेयरस्टाइल को दाँतों तले उंगली दबाए हुए देख रहा था और कल्पना कर रहा था कि यदि वो ये वाला नया हेयरस्टाइल अपना लेता है तो प्रतिमा और फातिमा और एंजलीना पर उसके इस नए रूप का क्या प्रभाव पड़ेगा.
बहरहाल, मुझे अपने बाल कटवाने थे. तो मैंने बिल्लू चाचा की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखा. इससे पहले बिल्लू काका मुझे देखते ही कुर्सी पेश करते थे और यदि व्यस्त रहते थे तो बोल देते थे कि घंटे आधे घंटे में वापस आ जाइए, तब तक वो लाइन में पहले से लगे ग्राहकों को निपटा लेगा. परंतु अभी बिल्लू काका का हिसाब बदला हुआ था. उन्होंने गर्व से बताया कि उनकी शॉप अब ऑनलाइन हो गई है. बाल कटवाने, दाढ़ी बनवाने, बाल रंगवाने और यहाँ तक कि चंपी करवाने के लिए भी पहले ऑनलाइन बुकिंग करनी पड़ेगी, समय लेना होगा तब बात बनेगी. यदि मैं आपको अपना पुराना ग्राहक मान कर बाल काटने लगूं, और इतने में कोई ऑनलाइन बुकिंग इस समय की हो जाए और कोई ऑनलाइन बुकिंग धारी ग्राहक आ जाए तब तो मेरी बहुत भद पिटेगी. मैं ऐसा नहीं कर सकता. मामला ऑनलाइन का है.

मैंने विरोध किया कि काका, मेरे पास न तो कंप्यूटर है न मुझे कंप्यूटर चलाना आता है. मैं ऐसा कैसे करूंगा. बिल्लू काका को खूब पता था कि मैं झूठ बोल रहा हूँ. मगर फिर भी उन्होंने इस बात को गंभीरता से लिया और बात स्पष्ट किया - अब इस दुकान की सेवा लेनी होगी तो पहले ऑनलाइन बुकिंग तो करवानी ही होगी. यदि आपके पास कंप्यूटर नहीं है तो क्या हुआ. पास ही सुविधा केंद्र है, साइबर कैफे है, वहाँ जाइए और वहाँ से बुकिंग करिए.

तो मैंने सोचा कि चलो पास के साइबर कैफ़े से बिल्लू काका के सेलून में बाल काटने की बुकिंग कर लेते हैं. क्योंकि यदि आज बगैर बाल कटवाए वापस गए तो घर पर खैर नहीं. और, बीबी को यह बात बताएंगे कि अब ऑनलाइन बुक कर बाल कटवाने होंगे, जिसमें समय लगेगा तो वो किसी सूरत ये बात मानेगी ही नहीं और ऊपर से निश्चित ही अपना तकिया कलाम कहने से नहीं चूकेगी - क्या बेवकूफ बनाने के लिए मैं ही मिली थी!
साइबर कैफ़े में लंबी लाइन लगी थी. मैं भी कोई चारा न देख लाइन में लग गया. बड़ी देर बाद मेरा नंबर आया तो मैंने कैफ़े वाले से कहा कि वो बिल्लू बारबर के यहाँ बाल कटवाने की मेरी बुकिंग कर दे. उसने ढाई सौ रुपए मांगे. मैं यूं चिंहुका जैसे कि मेरे बाल विहीन सर पर ओले का कोई बड़ा टुकड़ा गिर गया हो. ढाई सौ रूपए? मैं चिल्लाया, और पूछा कि इतने पैसे किस बात के?
साइबर कैफ़े वाले ने मुझे अजीब तरह से घूरते हुए बताया कि पचास रुपए तो बिल्लू बारबर के यहाँ बाल कटवाने का दर है. बाकी दो सौ रुपए साइबर कैफ़े की आधिकारिक सुविधा शुल्क है.
मैं भुनभुनाने लगा और बोला कि यह तो सरासर लूट है. तो साइबर कैफ़े वाले ने कहा कि यदि बुक करवाना है तो जल्दी बोलो नहीं तो आगे बढ़ो. फालतू टाइम क्यों खराब करते हो. वैसे भी सुबह से बंद पड़ा सर्वर अभी चालू हुआ है और अटक फटक कर चल रहा है. मेरे पीछे लंबी लाइन में और भी दर्जनों लोग खड़े थे और वे जल्दी करो जल्दी करो का हल्ला मचा रहे थे. तमाम दुनिया ऑनलाइन हुई जा रही थी तो ये बवाल तो खैर मचना ही था.
सुबह का निकला शाम को जब बाल कटवा कर वापस घर लौट रहा था तो पड़ोस में रहने वाला एक छात्र बेहद खुश खुश आता दिखाई दिया. वो पढ़ने लिखने में बेहद फिसड्डी था और मैट्रिक में वो इस साल तीसरी कोशिश में पास हुआ था.
मैंने उससे पूछा कि भई क्या बात है बेहद खुश नजर आ रहे हो. तुम्हारा रिजल्ट निकले तो अरसा बीत गया मगर खुशी अभ भी उतनी ही है जैसे जश्न मनाने और लड्डू बांटने के दिन हैं...

अरे अंकल, आप भी क्या मजाक करते हैं. उसने मेरी बात काटी और आगे बोला - मुझे कॉलेज में एडमीशन लेना है और अब मुझे बढ़िया कॉलेज में अपने मनपसंद विषय में दाखिला मिल जाएगा.
मैंने कहा - वो कैसे? तुम्हारा तो थर्ड डिवीजन है.
तो क्या हुआ अंकल – वो खुशी से चिल्लाया - इस साल से कॉलेज मे एडमीशन ऑनलाइन हो गए हैं!
ओह, तो ये बात थी.
दुनिया ऑनलाइन हुए जा रही है. नर्सरी और केजी 1 के एडमीशन भी. सवाल ये है कि आप ऑनलाइन हुए या नहीं?

मुआवज़े का फार्म



एक उद्योगपति, एक व्यापारी, एक बैंक मैनेजर और एक सरकारी कर्मचारी गहरे दोस्त थे। एक दिन चारो अपनी-अपनी बिल्ली लेकर एक जगह इकट्ठे हुए और लगे उनकी ख़ूबियों का बखान करने।


फिर उद्योगपति ने अपनी बिल्ली को इशारा किया। वह दौड़ी और कुछ देर में मिठाई का डिब्बा लाकर मेज पर रख दिया।


व्यापारी के इशारे पर उसकी बिल्ली दूध से भरा गिलास ले आई और मेज पर रख दिया।


बैंक मैनेजर का इशारा पाकर उसकी बिल्ली एक प्लेट में केक सजाकर ले आयी और टेबल पर रख दिया।


बिल्लियों की इस भाग दौड़ के दौरान सरकारी कर्मचारी की बिल्ली एक कुरसी पर बैठी सोती रही। 


सरकारी कर्मचारी ने ज़रा ऊंची आवाज़ में कहा, “लंच टाइम।“ यह सुनते ही उसकी बिल्ली ने आंखें खोली, कान खड़े किए और टेबल पर रखी चीज़ों पर टूट पड़ी। सारा सामान चट कर जाने के बाद वह बाक़ी तीनों बिल्लियों के साथ लड़ने लगी। फिर घायल होने का दावा करते हुए मुआवज़े का फार्म भरा और Sick Leave लेकर घर चली गई।


बाबा का ढाबा



हमारे भारत देश में, फिर पनपे कई बाबा,
कृपा बरसाने के नाम पर, खोला ठगी का ढाबा।


खोला ठगी का ढाबा, बात समझ न आई,
आँखे सबकी दो, तीसरी कहाँ से आई ।


होनी है सो होकर रहेगी, चाहे खाओ लाख समोसे,
कर्म कर फल मिलेगा, क्यों किस्मत को को।


निर्मल है कि नोर्मल है, यह तो अब कौन जाने,
पर बाबा नहीं यह ठग है, हम भी अब यह माने ।


सब कुछ ठगी का जाल है, होता इनसे चमत्कार नहीं,
हमारी भावनाओ से ख, इनको ये अधिकार नहीं ।

धर्म आस्था के नाम पर, चलता करोडो का धंधा,
आओ इन्हें सबक सिखाए, कंधो से मिलाकर कन्धा।

मंगलवार, 15 मई 2012

सब कुछ एक साथ नहीं

एक धर्मोपदेशक मुल्ला जी उपदेश देने के लिए हॉल में पहुंचे। एक दूल्हे को छोड़कर उस हॉल में और कोई मौजूद नहीं था। वह दूल्हा सामने की सीट पर बैठा था।
असमंजस में पड़े मुल्ला जी ने दूल्हे से पूछा - "सिर्फ तुम ही यहाँ मौजूद हो। मुझे उपदेश देना चाहिए या नहीं?"
दूल्हे ने उनसे कहा - "श्रीमान। मैं बहुत साधारण आदमी हूं और मुझे यह सब ठीक से समझ में नही आता। लेकिन यदि मैं एक अस्तबल में आऊँ और यह देखूं कि एक घोड़े को छोड़कर सभी घोड़े भाग गए हैं, तब भी मैं उस अकेले घोड़े को खाने के लिए चारा तो दूंगा ही।"
मुल्ला जी को यह बात लग गई और उन्होंने उस अकेले व्यक्ति को दो घंटे तक उपदेश दिया। इसके बाद मुल्ला जी ने अतिउत्साहित होकर उससे पूछा - "तो तुम्हें मेरा उपदेश कैसा लगा?"
दूल्हे ने उत्तर दिया - "मैंने आपको पहले ही कहा था कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं और मुझे यह सब ठीक से समझ में नही आता। लेकिन यदि मैं एक अस्तबल में आऊँ और यह देखूं कि एक घोड़े को छोड़कर सभी घोड़े भाग गए हैं, तब मैं उस अकेले घोड़े को खाने के लिए चारा तो दूंगा परंतु सारा चारा एकबार में ही नहीं दे दूंगा।"

शनिवार, 12 मई 2012

वह बुजुर्ग लकड़हारा राजा था!


राजा भोज एक दिन खाली समय में नदी के किनारे टहल रहे थे। वे हरे-भरे वृक्षों और सुंदर फूलों को निहार रहे थे। तभी उन्हें सिर पर लकड़ियों का बंडल लादकर ले जाता एक व्यक्ति दिखायी दिया। उस वृद्ध व्यक्ति के सिर पर लदा बोझ बहुत भारी था और वह पसीने से तर हो रहा था। लेकिन वह प्रसन्न दिखायी दे रहा था। राजा ने उस व्यक्ति को रोकते हुए पूछा - “सुनो, तुम कौन हो? “ उस व्यक्ति ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया - “मैं राजा भोज हूं। “ यह सुनकर राजा भोज भौचक्के रह गए और पूछा - “कौन? “

उस व्यक्ति ने पुनः उत्तर दिया - “राजा भोज! “ राजा भोज जिज्ञासा से भर गए। वे बोले - “यदि तुम राजा भोज हो तो अपनी आय के बारे में बताओ? “ लकड़हारे ने उत्तर दिया - “हां, हां क्यों नहीं, मैं प्रतिदिन छह पैसा कमाता हूं। “

राजा ने उसकी जेब में मौजूद इस भारी धन के बारे में सोचा। कोई व्यक्ति छह पैसे प्रतिदिन कमाकर भी अपनेआप को राजा कैसे मान सकता है? और वह इतना खुश कैसे रह सकता है? राजा ने अपनी अनगिनत समस्याओं और चिंताओं के बारे में विचार किया। वह उस व्यक्ति के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा - “यदि तुम सिर्फ छह पैसे प्रतिदिन कमाते हो तो तुम्हारा खर्च कितना है? क्या तुम वास्तव में राजा भोज हो? “

उस वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया - “यदि आप वास्तव में जानना चाहते हैं तो मैं बताता हूं। मैं प्रतिदिन छह पैसा कमाता हूं। उसमें से एक पैसा मैं अपनी पूंजी के मालिक को देता हूं, एक पैसा मंत्री को और एक ऋणी को। एक पैसा मैं बचत के रूप में जमा करता हूं, एक पैसा अतिथियों के लिए और शेष एक पैसा मैं अपने खर्च के लिए रखता हूं। “ अब तक राजा भोज पूर्णतः विस्मित हो चुके थे। “क्या खूब योजना है! क्या खूब दृष्टिकोण! वह भी इतनी कम आय वाले व्यक्ति की!..... लेकिन यह कैसे संभव है? इस पहेली में उलझकर राजा ने फिर पूछा - “कृपया विस्तार से बतायें, मुझे कुछ ठीक से समझ में नहीं आया। “

लकड़हारे ने उत्तर दिया - “ठीक है! मेरे माता-पिता मेरी पूंजी के मालिक हैं। क्योंकि उन्होंने मेरे लालन-पालन में निवेश किया है। उन्हें मुझसे यह आशा है कि बुढ़ापे में मैं उनकी देखभाल करूं। उन्होंने मेरे लालन-पालन में यह निवेश इसीलिए किया था कि समय आने पर मैं उन्हें उनका निवेश ब्याज समेत लौटा सकूं। क्या सभी माता-पिता अपनी संतान से यह अपेक्षा नहीं करते? “

राजा ने तत्परता से पूछा - “और तुम्हारा ऋणी कौन है? “ वृद्ध व्यक्ति ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - “मेरे बच्चे! वे नौजवान हैं। यह मेरा फर्ज़ है कि मैं उनका सहारा बनूं। लेकिन जब वे वयस्क और कमाने योग्य हो जायेंगे, वे उसी तरह मेरा निवेश लौटाना चाहिये जैसे मैं अपने माता-पिता को लौटा रहा हूं। इस तरह उन्हें भी अपना पितृऋण चुकाना होगा। “

राजा ने कम शब्दों में पूछा - “और तुम्हारा मंत्री कौन है? “ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया - “मेरी पत्नी! वही मेरा घर चलाती है। मैं उसके ऊपर शारीरिक और भावनात्मक रूप से निर्भर हूं। वही मेरी सबसे अच्छी मित्र और सलाहकार है। “

राजा ने संकोचपूर्वक पूछा - “तुम्हारा बचत खाता कहां है? “ वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया - “जो व्यक्ति अपने भविष्य के लिए बचत नहीं करता, उससे बड़ा बेवकूफ और कोई नहीं होता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। प्रतिदिन मैं एक पैसा अपने खजाने में जमा करता हूं। “

राजा बोले - “कृपया बताना जारी रखें। “ लकड़हारे ने उत्तर दिया - “पांचवा पैसा मैं अपने अतिथियों की खातिरदारी के लिए सुरक्षित रखता हूं। एक गृहस्थ होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि मेरे घर के द्वार सदैव अतिथियों के लिए खुले रहें। कौन जाने कब कोई अतिथि आ जाये? मुझे पहले से ही तैयारी रखनी होती है। “
उसने मुस्काराते हुए अपनी बात जारी रखी - “और छठवां पैसा मैं अपने लिए रखता हूं। जिससे मैं अपने रोजमर्रा के खर्च चलाता हूं। “

अपनी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान पाकर राजा भोज उस लकड़हारे से बहुत प्रसन्न हुए।
निश्चित रूप से प्रसन्नता और संतुष्टि का धनसंपदा, पद और सांसारिक वैभव से कोई लेना-देना नहीं है। वर्तमान स्थिति के प्रति आपका व्यवहार और स्वभाव ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने को उपलब्ध साधनों के अनुरूप ही जीवनजीने की कला सीख ले तो वह काफी कुछ प्राप्त कर सकता है। यही सकारात्मक सोच और सही व्यवहार की शक्ति है। वह बुजुर्ग लकड़हारा वास्तव में राजा था क्योंकि उसका नजरिया ही राजा की तरह था!

सबसे सटीक उत्तर


गणित की टीचर ने 07 वर्ष के अर्नब को गणित पढ़ाते समय पूछा - “यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “ कुछ ही सेकेण्ड में अर्नब ने उत्तर दिया - “चार! “

नाराज टीचर को अर्नब से इस सरल से प्रश्न के सही उत्तर (तीन) की आशा थी। वह नाराज होकर सोचने लगी - “शायद उसने ठीक से प्रश्न नहीं सुना। “ यह सोचकर उसने फिर प्रश्न किया - “अर्नब ध्यान से सुनो, यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “

अर्नब को भी टीचर के चेहरे पर गुस्सा नजर आया। उसने अपनी अंगुलियों पर गिना और अपनी टीचर के चेहरे पर खुशी देखने के लिए थोड़ा हिचकिचाते हुए उत्तर दिया - “चार! “

टीचर के चेहरे पर कोई खुशी नज़र नहीं आयी। तभी टीचर को याद आया कि अर्नब को स्ट्राबेरी पसंद हैं। उसे सेब पसंद नहीं हैं इसीलिए वह प्रश्न पर एकाग्रचित्त नहीं हो पा रहा है। बढ़े हुए उत्साह के साथ अपनी आँखें मटकाते हुए टीचर ने फिर पूछा - “यदि मैं तुम्हें एक स्ट्राबेरी, एक स्ट्राबेरी और एक स्ट्राबेरी दूं तो तुम्हारे पास कुल कितनी स्ट्राबेरी हो जायेंगी? “

टीचर को खुश देखकर अर्नब ने फिर से अपनी अंगुलियों पर गिनना शुरू किया। इस बार उसके ऊपर कोई दबाव नहीं था बल्कि टीचर के ऊपर दबाव था। वह अपनी नयी योजना को सफल होते देखना चाहती थीं। थोड़ा सकुचाते हुए अर्नब ने टीचर से पूछा - “तीन? “

टीचर के चेहरे पर सफलता की मुस्कराहट थी। उनका तरीका सफल हो गया था। वे अपने आप को बधाई देना चाहती थीं। लेकिन एक चीज बची हुयी थी। उन्होंने अर्नब से फिर पूछा - “अब यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “

अर्नब ने तत्परता से उत्तर दिया - “चार। “

टीचर भौचक्की रह गयीं। उन्होंने खिसियाते हुए कठोर स्वर में पूछा - “कैसे अर्नब, कैसे? “ अर्नब ने मंद स्वर में संकुचाते हुए उत्तर दिया - “क्योंकि मेरे पास पहले से ही एक सेब है। “

जब भी कोई व्यक्ति आपको अपेक्षा के अनुरूप उत्तर न दे तो यह कतई न समझें कि वह गलत है। उसके पीछे भी कोई न कोई कारण हो सकता है। आप उस उत्तर को सुनें और समझने की कोशिश करें। लेकिन पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर न सुनें।

जब तूफान आये तब नींद लो


एक किसान का खेत समुद्र के तट पर था। उसने अन्य किसान को किराये पर लेने के लिए कई विज्ञापन दिये। लेकिन ज्यादातर लोग समुद्र तट पर स्थित खेत में काम करने के इच्छुक नहीं थे। समुद्र के किनारे भयंकर तूफान उठते रहते हैं जो जानमाल और फसलों को प्रायः नुक्सान पहुंचाते हैं। उस किसान ने कई लोगों का अपने सहायक के रूप में कार्य करने के लिए साक्षात्कार लिया परंतु सभी ने मना कर दिया।

अंत में एक ठिगने कद का दुबला-पतला अधेड़ व्यक्ति किसान के पास आया।

किसान ने उससे पूछा - "खेती-किसानी जानते हो?"

उस ठिगने आदमी ने उत्तर दिया - "मैं उस समय सो सकता हूं जब तूफान आ रहा हो।" यद्यपि वह उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं था किंतु उसके पास उसे रखने के अलावा और कोई चारा नहीं था। वह ठिगना व्यक्ति सुबह से शाम तक खेत में काम में लगा रहता। किसान भी उसके काम से संतुष्ट था। एक रात समुद्र की ओर से तूफान की खौफनाक आवाजें आने लगीं। अपने बिस्तर से कूद कर किसान ने लालटेन संभाली और पड़ोस में स्थित उस व्यक्ति के आवास तक भांगता हुआ गया। उसने झटका देकर उस किसान को जगाया और कहा -"जल्दी उठो, तूफान आ रहा है। सभी चीजों को बांध लो ताकि तूफान उन्हें उड़ा न ले जाये।"

उस ठिगने आदमी ने करवट बदलते हुए कहा - "नहीं श्रीमान, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि मैं उस समय सो सकता हूं जब तूफान आ रहा हो।"

उसके दोटूक उत्तर से किसान को बहुत गुस्सा आया। वह तत्काल उसे नौकरी से निकालना चाहता था लेकिन वह तूफान से बचाव के लिए बाहर भागा। उसे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि सूखी घास के ढेर तिरपाल से ढ़के हुए थे। सभी गायें अपने बाड़े और मुर्गियां अपने दरबे में थीं और दरवाजे बंद थे। शटर भी कसकर बंद था। हरचीज बंधी हुयी थी। कुछ भी उड़ नहीं सकता था।

किसान को तब जाकर उस आदमी की बात का अर्थ समझ में आया। वह भी अपने बिस्तर की ओर लोटा और आराम से सो गया।

जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होता है तब उसे कोई भय नहीं होता। सूत्र वाक्य यह है कि बुरी से बुरी स्थिति के लिए भी तैयार रहो।


सावधान! ऊर्जा बचत के लिए ‘अर्थ आवर’ बन सकता है ‘डिज़ॉस्टर आवर .


ऊर्जा बचत के लिए ‘अर्थ आवर’ जैसी विचारधारा काग़ज़ी तौर पर तो बड़ी उम्दा दिखाई देती है, मगर यह किसी बड़े डिज़ॉस्टर को निमंत्रण देती भी प्रतीत होती है. ‘अर्थ आवर’ में पूरी पृथ्वी पर हर तरफ (स्थानीय समयानुसार)  रात 8.30 बजे से 9.30 बजे तक एक साथ बिजली बत्ती बंद रखने की बात कही जा रही है. और अगर सचमुच हम सभी एक साथ बिजली बन्द कर दें, तो यह हमारे लिए बन सकता है ‘डिज़ॉस्टर आवर’. आइए, देखें कि कैसै.

वैसे तो आमतौर पर तमाम भारतीय क्षेत्रों में बिजली की खासी किल्लत बनी रहती है और शेड्यूल्ड, नॉन-शेड्यूल्ड तथा अंडर-फ्रिक्वेंसी बिजली कटौती के फलस्वरूप रोज ब रोज कई कई घंटे बिजली बन्द रहती है. ऐसे में ‘अर्थ आवर’ की अवधारणा भारतीय क्षेत्रों के लिए तो काम की ख़ैर नहीं ही है. मगर, कल्पना करें कि जहाँ चौबीसों घंटे बिजली मिलती रहती है, वहाँ पर आप अचानक, एक साथ तमाम बिजली (के तमाम उपकरणों को) बन्द कर दें तो क्या होगा? ये तो एक हादसे को निमंत्रण देने जैसा है.

आपको उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं. कल्पना करें कि कोई मालगाड़ी टनों वजन लेकर अपनी अधिकतम रफ़्तार से दौड़ रही है. अचानक ही कोई दैत्याकार राक्षस मालगाड़ी के तमाम वजन को अपने विशाल पंजों में एक झटके में उठा लेता है. मालगाड़ी का इंजन जो टनों वजन को अपनी पूरी शक्ति से खींच रहा होता है उसके ऊपर अब कोई लोड नहीं होता. तो ऐसे में क्या होगा? मालगाड़ी की गति अनंत हो जाएगी और वो बेपटरी होकर दुर्घटना-ग्रस्त हो जाएगी. ऐसे ही अचानक खाली (जब आप वापस बिजली चालू करेंगे) चलती मालगाड़ी पर अचानक लोड दे दिया जाएगा तो क्या होगा? मालगाड़ी धड़ से रूक जाएगी.

यही हाल हमाले विद्युत संयंत्रों का होगा. विद्युत संयंत्र अपने अपने लोड शेयरिंग के हिसाब से सिंक्रोनाइजेशन में चलते हैं. ‘अर्थ आवर’ के शुरू होते ही उनका लोड अचानक ही खत्म कर दिया जाएगा तो वे अचानक ही सिंक्रोनाइजेशन से बाहर हो जाएंगे और या तो वे दुर्घटनाग्रसत् हो जाएंगे या सुरक्षा के लिहाज से वे स्वयंमेव बन्द हो जाएंगे. इसी तरह ‘अर्थ आवर’ की समाप्ति पर जब अचानक लोड बढ़ेगा तो फिर से एकबार यही स्थिति आएगी. और, एक बार कोई विद्युत संयंत्र सिंक्रोनाइज़ेशन से बाहर हो जाता है तो उसे वापस सिंक्रोनाइजेशन में लाने में समय, सावधानी और तैयारी लगती है. फिर, यहाँ पर तो लोड चहुँओर बन्द हो रहा है, ऐसे में यदा कदा टोटल ब्रेकडाउन की स्थिति भी आ सकती है. यानी – डिज़ॉस्टर को खुले आम आमंत्रण.

‘अर्थ आवर’ की अवधारणा अच्छी है, मगर इसमें व्यावहारिक परिवर्तन की दरकार है. 24 घंटों में क्षेत्रों की सहूलियत व प्रायोगिकता के हिसाब से बिजली बंद करने के समय को अलग-अलग किया जाना चाहिए ताकि इसके कारण विद्युत संयंत्रों व विद्युत वितरण कार्यप्रणाली में आने वाले झटकों को रोका जा सके.

बुधवार, 9 मई 2012

पर्स में फोटो


यात्रियों से खचाखच भरी ट्रेन में टी.टी.ई. को एक पुराना फटा सा पर्स मिला। उसने पर्स को खोलकर यह पता लगाने की कोशिश की कि वह किसका है। लेकिन पर्स में ऐसा कुछ नहीं था जिससे कोई सुराग मिल सके। पर्स में कुछ पैसे और भगवान श्रीकृष्ण की फोटो थी। फिर उस टी.टी.ई. ने हवा में पर्स हिलाते हुए पूछा - "यह किसका पर्स है? "

एक बूढ़ा यात्री बोला - "यह मेरा पर्स है। इसे कृपया मुझे दे दें। " टी.टी.ई. ने कहा - "तुम्हें यह साबित करना होगा कि यह पर्स तुम्हारा ही है। केवल तभी मैं यह पर्स तुम्हें लौटा सकता हूं। " उस बूढ़े व्यक्ति ने दंतविहीन मुस्कान के साथ उत्तर दिया - "इसमें भगवान श्रीकृष्ण की फोटो है। " टी.टी.ई. ने कहा - "यह कोई ठोस सबूत नहीं है। किसी भी व्यक्ति के पर्स में भगवान श्रीकृष्ण की फोटो हो सकती है। इसमें क्या खास बात है? पर्स में तुम्हारी फोटो क्यों नहीं है? "

बूढ़ा व्यक्ति ठंडी गहरी सांस भरते हुए बोला - "मैं तुम्हें बताता हूं कि मेरा फोटो इस पर्स में क्यों नहीं है। जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था, तब ये पर्स मेरे पिता ने मुझे दिया था। उस समय मुझे जेबखर्च के रूप में कुछ पैसे मिलते थे। मैंने पर्स में अपने माता-पिता की फोटो रखी हुयी थी।

जब मैं किशोर अवस्था में पहुंचा, मैं अपनी कद-काठी पर मोहित था। मैंने पर्स में से माता-पिता की फोटो हटाकर अपनी फोटो लगा ली। मैं अपने सुंदर चेहरे और काले घने बालों को देखकर खुश हुआ करता था। कुछ साल बाद मेरी शादी हो गयी। मेरी पत्नी बहुत सुंदर थी और मैं उससे बहुत प्रेम करता था। मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर उसकी लगा ली। मैं घंटों उसके सुंदर चेहरे को निहारा करता।

जब मेरी पहली संतान का जन्म हुआ, तब मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। मैं अपने बच्चे के साथ खेलने के लिए काम पर कम समय खर्च करने लगा। मैं देर से काम पर जाता ओर जल्दी लौट आता। कहने की बात नहीं, अब मेरे पर्स में मेरे बच्चे की फोटो आ गयी थी। "

बूढ़े व्यक्ति ने डबडबाती आँखों के साथ बोलना जारी रखा - "कई वर्ष पहले मेरे माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। पिछले वर्ष मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गयी। मेरा इकलौता पुत्र अपने परिवार में व्यस्त है। उसके पास मेरी देखभाल का क्त नहीं है। जिसे मैंने अपने जिगर के टुकड़े की तरह पाला था, वह अब मुझसे बहुत दूर हो चुका है। अब मैंने भगवान कृष्ण की फोटो पर्स में लगा ली है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ है कि श्रीकृष्ण ही मेरे शाश्वत साथी हैं। वे हमेशा मेरे साथ रहेंगे। काश मुझे पहले ही यह एहसास हो गया होता। जैसा प्रेम मैंने अपने परिवार से किया, वैसा प्रेम यदि मैंने ईश्वर के साथ किया होता तो आज मैं इतना अकेला नहीं होता। "

टी.टी.ई. ने उस बूढ़े व्यक्ति को पर्स लौटा दिया। अगले स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वह टी.टी.ई. प्लेटफार्म पर बने बुकस्टाल पर पहुंचा और विक्रेता से बोला - "क्या तुम्हारे पास भगवान की कोई फोटो है? मुझे अपने पर्स में रखने के लिए चाहिए। "