शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

जल व पिंडदान का महत्त्व श्राद्ध पक्ष 

भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता व परिवार के मृतकों के नियमित श्राद्ध करने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है। श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहा गया है व पितृकर्म से तात्पर्य पितृपूजा भी है।अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (कुंवार) माह की अमावस्या तक के यह सोलह दिन श्राद्धकर्म के होते हैं। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष की शुरुआत 30 सितंबर,2012 (रविवार) से होकर उसका समापन 15 अक्तूबर,2012 (सोमवार) को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को होगा। महर्षि पाराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि से जो कर्म यव (तिल) व दर्भ (कुशा) के साथ मंत्रोच्चार के साथ श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह श्राद्ध होता है। 

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्घ की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्घापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्घ है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है।इसी पक्ष में श्राद्घ करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है।अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती हैं। जड़-चेतनमयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जल दान दिया जाता है। 

महर्षि पुलस्त्य के अनुसार जिस कर्मविशेष में दूध, घृत और मधु से युक्त अच्छी प्रकार से पके हुए पकवान श्रद्धापूर्वक पितृ के उद्देश्य से गौ, ब्राह्मण आदि को दिए जाते हैं वही श्राद्ध है। अतः जो लोग विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करते हैं वह सभी पापों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। उनका संसार में चक्र छूट जाता है। इसीलिए चाहिए कि पितृगणों की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। कहा है कि श्राद्ध करने वाले की आयु बढ़ती है पितृ उसे श्रेष्ठ संतान देते हैं, घर में धन-धान्य बढ़ने लगता है, शरीर में बल, पौरुष बढ़ने लगता है एवं संसार में यश और सुख की प्राप्ति होती है। 

श्राद्ध कर्म में गया तीर्थ का स्मरण करते हुए 'ॐ गयायै नमः' तथा गदाधर स्मरण करते हुए 'ॐ गदाधराय नमः' कहकर सफेद पुष्प चढ़ाने चाहिए। साथ ही तीन बार 'ॐ श्राद्धभूम्यै नमः' कहकर भूमि पर जौ एवं पुष्प छोड़ने चाहिए श्राद्धकर्ता को स्नान करके पवित्र होकर धुले हुए दो वस्त्र धोती और उत्तरीय धारण करना चाहिए। गौमय से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर बैठकर श्राद्ध की सामग्रियों को रखकर सबसे पहले भोजन का निर्माण करना चाहिए। उसके बाद ईशान कोण में पिण्ड दान के लिए पाक सामग्री रख लें। साथ ही वहीं पर खीर का कटोरा भी स्थापित कर देना चाहिए। उसके बाद विप्र भोज के लिए रखे हुए भोजन में तुलसीदल डालकर भगवान का भोग लगाना चाहिए। 

श्राद्ध कर्ता को गायत्री मंत्र पढ़ते हुए शिखाबंधन करने के बाद श्राद्ध के लिए रखा हुआ जल छिड़कते हुए सभी वस्तुओं को पवित्र कर लेना चाहिए। उसके बाद तीन बार आचमनी करें हाथ धोकर विश्वदेवों के लिए दो आसन दें। उन दोनों आसनों के सामने भोजन पात्र के रूप में पलाश अथवा तोरी का एक-एक पत्ता रख दें भोजन के उत्तर दिशा में जल भरा हुआ दोना रखकर पूर्वजों के निमित्त वेद मंत्रों के साथ श्राद्ध एवं तर्पण करना चाहिए।
धर्मशास्त्रोक्त सभी ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक मधु, डेढ़ प्रहर तक दुग्ध, साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप से पितृ को प्राप्त होता है। श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर से धरती में छोड़ने से पितर को तृप्ति मिलती है। 

पितरों की पद वृद्घि तथा तृप्ति के लिए स्वयं श्राद्घ करना चाहिए। पितरों के लिए श्रद्घा से क्रमानुसार वैदिक पद्घति से शांत चित्त होकर किया कर्म श्राद्घ कहलाता है। शास्त्र में सुस्पष्ट है कि नाम व गौत्र के सहारे स्वयं के द्वारा किया श्राद्घ पितरों को विभिन्न योनियों में प्राप्त होकर उन्हें तृप्त करता है।

यम स्मृति तथा निर्णय सिंधु के आधार पर जब सूर्य कन्या राशि में अवस्थित हो, तब पितृ अपने पुत्र-पौत्र की ओर देखते हैं। अपनी तृप्ति व पद वृद्घि के हेतु जल व पिंडदान की आशा करते हैं। सूर्यसंहिता के आधार पर पितृ वर्ष में साढ़े दस महीने अपनी ऊर्जा द्वारा पुत्र-पौत्रों को शुभ-आशीष प्रदान करते हैं। पुत्र पौत्रों द्वारा दिए गए जल व पिंडदान से उन्हें ऊर्जा मिलती है। जब पितरों के निमित्त जल व पिंड दान नहीं किया जाता है, तब पितृ क्लेश करते हैं। कर्तव्य स्वरूप स्वयं द्वारा पितरों के निमित्त श्राद्घ करने से वह सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। तृप्त होकर पितृ अपने वंशजों को आशीर्वाद, सुख-समृद्घि प्रदान करते हैं। 

पितृ अत्यंत दयालु तथा कृपालु होते हैं, वह अपने पुत्र-पौत्रों से पिण्डदान तथा तर्पण की आकांक्षा रखते हैं। श्राद्ध तर्पण आदि द्वारा पितृ को बहुत प्रसन्नता एवं संतुष्टि मिलती है। पितृगण प्रसन्न होकर दीर्घ आयु, संतान सुख, धन-धान्य, विद्या, राजसुख, यश-कीर्ति, पुष्टि, शक्ति, स्वर्ग एवं मोक्ष तक प्रदान करते हैं। 

श्राद्घ में दी गई अन्न आदि सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती है। विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न योनियां प्राप्त होती हैं। कोई देवता, पितृ, प्रेत, हाथी, चींटी तथा कोई चिनार का वृक्ष या तृण बनता है। श्राद्घ में दिए गए छोटे से पिंड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है। छोटी-सी चींटी इतना बड़ा पिंड कैसे खा सकती है और देवता तो अमृत से तृप्त होते हैं। पिंड से उन्हें कैसे तृप्ति मिल सकती है। 

शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्घकाल उपस्थित हो गया है, तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्घस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं।

आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्घ नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्घ विमुख नहीं होना चाहिए। इसका प्रमाण मार्कंडेय पुराण, वायु पुराण तथा श्राद्घ कल्पलता में मिलता है।


जिस देश में श्राद्ध पक्ष इतनी श्रद्धा से और व्यापक स्तर पर मनाया जाता है उस देश में बढ़ते वृद्धाश्रम क्या इंगित करते है ? क्या हम केवल लकीर के फ़क़ीर हो रहे है ।  
जो कर्मकांड हम करते है उनके वास्तविक महत्व पर भी विचार कर रहे है ?

सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है

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