शनिवार, 13 जुलाई 2013

अजनबी हमसफ़र ...............

वो ट्रेन के रिजर्वेशन के डब्बे में बाथरूम के तरफ वाली एक्स्ट्रा सीट पर बैठी थी, उसके चेहरे से पता चल रहा था कि थोड़ी सी घबराहट है उसके दिल में कि कहीं टीसी ने आकर पकड़ लिया तो. कुछ देर तक तो पीछे पलट - पलट कर टीसी के आने का इंतज़ार करती रही. शायद सोच रही थी कि थोड़े बहुत पैसे देकर कुछ निपटारा कर लेगी. देखकर यही लग रहा था कि जनरल डब्बे में चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें आकर बैठ गयी, शायद ज्यादा लम्बा सफ़र भी नहीं करना होगा. सामान के नाम पर उसकी गोद में रखा एक छोटा सा बेग दिख रहा था. मैं बहुत देर तक कोशिश करता रहा पीछे से उसे देखने की कि शायद चेहरा सही से दिख पाए लेकिन हर बार असफल ही रहा. फिर थोड़ी देर बाद वो भी खिड़की पर हाथ टिकाकर सो गयी. और मैं भी वापस से अपनी किताब पढ़ने में लग गया.


लगभग 1 घंटे के बाद टीसी आया और उसे हिलाकर उठाया.
"कहाँ जाना है बेटा"
"अंकल अहमदनगर तक जाना है"
"टिकेट है?"
"नहीं अंकल .... जनरल का है .... लेकिन वहां चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें बैठ गयी"
"अच्छा 300 रुपये का पेनाल्टी बनेगा"
"ओह ... अंकल मेरे पास तो लेकिन 100 रुपये ही हैं"
"ये तो गलत बात है बेटा .... पेनाल्टी तो भरनी पड़ेगी"
"सॉरी अंकल .... मैं अलगे स्टेशन पर जनरल में चली जाउंगी .... मेरे पास सच में पैसे नहीं हैं .... कुछ परेशानी आ गयी, इसलिए जल्दबाजी में घर से निकल आई ... और ज्यदा पैसे रखना भूल गयी .... "बोलते बोलते वो लड़की रोने लगी
टीसी उसे माफ़ किया और 100 रुपये में उसे अहमदनगर तक उस डब्बे में बैठने की परमिशन देदी.
टीसी के जाते ही उसने अपने आँसू पोंछे और इधर - उधर देखा कि कहीं कोई उसकी ओर देखकर हंस तो नहीं रहा था.
थोड़ी देर बाद उसने किसी को फ़ोन लगाया और कहा कि उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं बचे हैं ... अहमदनगर स्टेशन पर कोई जुगाड़ कराके उसके लिए पैसे भिजा दे, वरना वो समय पर गाँव नहीं पहुँच पायेगी.

मेरे मन में उथल - पुथल हो रही थी, न जाने क्यूँ उसकी मासूमियत देखकर उसकी तरफ खिंचाव सा महसूस कर रहा था, दिल कर रहा था कि उसे पैसे देदूं और कहूँ कि तुम परेशान मत हो ... और रो मत .... लेकिन एक अजनबी के लिए इस तरह की बात सोचना थोडा अजीब था. उसकी शक्ल से लग रहा था कि उसने कुछ खाया पिया नहीं है शायद सुबह से ... और अब तो उसके पास पैसे भी नहीं थे.

बहुत देर तक उसे इस परेशानी में देखने के बाद मैं कुछ उपाय निकालने लगे जिससे मैं उसकी मदद कर सकूँ और फ़्लर्ट भी ना कहलाऊं. फिर मैं एक पेपर पर नोट लिखा,

"बहुत देर से तुम्हें परेशान होते हुए देख रहा हूँ, जनता हूँ कि एक अजनबी हम उम्र लड़के का इस तरह तुम्हें नोट भेजना अजीब भी होगा और शायद तुम्हारी नज़र में गलत भी, लेकिन तुम्हे इस तरह परेशान देखकर मुझे बैचेनी हो रही है इसलिए यह 500 रुपये दे रहा हूँ, तुम्हे कोई अहसान न लगे इसलिए मेरा एड्रेस भी लिख रहा हूँ ..... जब तुम्हें सही लगे मेरे एड्रेस पर पैसे वापस भेज सकती हो .... वैसे मैं नहीं चाहूँगा कि तुम वापस करो ... ..

अजनबी हमसफ़र "

एक चाय वाले के हाथों उसे वो नोट देने को कहा, और चाय वाले को मना किया कि उसे ना बताये कि वो नोट मैंने उसे भेजा है. नोट मिलते ही उसने दो - तीन बार पीछे पलटकर देखा कि कोई उसकी तरह देखता हुआ नज़र आये तो उसे पता लग जायेगा कि किसने भेजा. लेकिन मैं तो नोट भेजने के बाद ही मुँह पर चादर डालकर लेट गया था.

थोड़ी देर बाद चादर का कोना हटाकर देखा तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट महसूस की. लगा जैसे कई सालों से इस एक मुस्कराहट का इंतज़ार था. उसकी आखों की चमक ने मेरा दिल उसके हाथों में जाकर थमा दिया .... फिर चादर का कोना हटा - हटा कर हर थोड़ी देर में उसे देखकर जैसे सांस ले रहा था मैं. पता ही नहीं चला कब आँख लग गयी.

जब आँख खुली तो वो वहां नहीं थी ... ट्रेन अहमदनगर स्टेशन पर ही रुकी थी. और उस सीट पर एक छोटा सा नोट रखा था ..... मैं झटपट मेरी सीट से उतरकर उसे उठा लिया .. और उस पर लिखा था ...

शुक्र है कि तुम मेरे अजनबी हमसफ़र .... आपका ये अहसान मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूलूँगी .... मेरी माँ आज मुझे छोड़कर चली गयी हैं .... घर में मेरे अलावा और कोई नहीं है इसलिए आनन - फानन में घर जा रही हूँ. आज आपके इन पैसों से मैं अपनी माँ को शमशान जाने से पहले एक बार देख पाऊँगी .... उनकी बीमारी की वजह से उनकी मौत के बाद उन्हें ज्यादा देर घर में नहीं रखा जा सकता. आजसे मैं आपकी कर्ज़दार हूँ ... जल्द ही आपके पैसे लौटा दूँगी.

उस दिन से उसकी वो आँखें और वो मुस्कराहट जैसे मेरे जीने की वजह थे .... हर रोज़ पोस्टमैन से पूछता था शायद किसी दिन उसका कोई ख़त आ जाये ....

आज 1 साल बाद एक ख़त मिला ...

आपका क़र्ज़ अदा करना चाहती हूँ .... लेकिन ख़त के ज़रिये नहीं आपसे मिलकर ...

 नीचे मिलने की जगह का पता लिखा था .... और आखिर में लिखा था .. अजनबी हमसफ़र ......


सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है (by Ankita Jain)

नमक स्वादानुसार.......(एक लघुकथा..)

आसमान मे टिमटिमाते तारे, वो उधार की रोशनी से चमकता चाँद भी वो रोशनी नही दे पा रहे थे, जो केरोसीन भरी एक शीशी मे लटकी बाती जल जलकर उस छोटे से खंडहर को दे रही थी ... पन्नी से ढकी छत ... हवाओं के थपेड़ों से उनकी फट फट की आवाज़ .... पर कोने मे सजी ईंटों का बोझ और उन ईंटों मे छिपी कुछ उम्मीदों का बोझ उस पन्नी की उच्छृंखलता पर लगाम लगाए हुए थे ... और उन थपेड़ों मे लहराती लौ में चमकती दो उम्मीदें उस खंडहर को घर बना रही थी ... दिन भर की मेहनत ... और उससे हुई पसीने रूपी कमाई ... अब मजदूरो की यही तो कमाई होती है दूसरी कमाई किसकाम की ... 1 रुपये कमाने मे 1 लीटर पसीना तो बह ही जाता होगा, पर उससे 100 ग्राम तेल भी नही मिलता ... आँखों मे सन्नाटा था ... पर उस घर के सन्नाटे को एक ट्रांजिस्टर तोड़ रहा था ... पर कम्बख़्त वो ट्रांजिस्टर भी खड़बड़ खड़बड़ करके बीच बीच मे बेताला हो जाता था ... उस खड़बड़ में साँवले हाथो की चूड़ियों की खन खन और उसके पति की खाँसी की ठन ठन ताल से ताल मिला रहे थे ... फिर उस औरत ने चूल्हे की ओर रुख़ किया ... चूल्हा क्या बस वही था जो कभी कभी बच्चे खेल खेल मे ईंटों से बना देते हैं ... उसी मे कुछ अधज़ली खामोश लकड़ियाँ पड़ी थी ... वो भी सोचती होंगी कम्बख़्तों रोज़ थोड़ा थोड़ा जलाते हो कभी पूरा ही जला दो ... पर वो भी कहें क्या जानती हैं वो पूरा जल गयी तो जाने इस चूल्हे का आँगन कब तक सूना रहेगा ... सीली माचिस की डिब्बी मे दुबकी बैठी एक तीली उन साँवले हाथों ने निकाली ... फिर खाली मन और गीली माचिस मे कुश्ती शुरू हो गयी ... तभी ट्रांजिस्टर से मलाई कोफ्ता बनाने की विधि बताई जाने लगी ... अब ट्रांजिस्टर बेचारा आदमी तो है नहीं कि अमीर ग़रीब मे फ़र्क कर पाए ... पर यहाँ तो कुछ अजीब ही हुआ ... जाने उन दोनो को क्या सूझी दोनो ही ट्रांजिस्टर के करीब आके सुनने लगे ... ट्रांजिस्टर कुछ कुछ बकता रहा ... और दोनो ध्यान से सुनते रहे .... फिर अंत मे आवाज़ आई ... "नमक स्वादानुसार" ... दोनो ने एक दूसरे की तरफ देखा, फिर मकड़ी के जाले लगे कुछ टूटे डब्बों की ओर ... कुछ औंधे मुँह पड़े थे ... जैसे मुँह चिढ़ा रहे हो की बड़े आए मलाई कोफ्ता खाने वाले ... पर वो क्यूँ चिढ़ते उन्हे तो इसकी आदत थी ... दोनो खूब ज़ोर से हँसे ... चूल्हे की आग मे जलकर तवे ने कुछ रोटियों को जन्म दिया .... फिर कुछ खाली डब्बों को खंगालने की कोशिश हुई ... फिर आराम से बैठकर बड़े प्यार दोनो ने वो रोटियाँ मलाई कोफ्ते के साथ खाई ... क्या बात करते हो ग़रीब और मलाई कोफ्ता ... . हाँ मलाई कोफ्ता ही तो था ..... बस उसमे न मलाई थी न कोफ्ता ... था तो बस ... "नमक स्वादानुसार" .... ट्रांजिस्टर की आवाज़ भी धीमी होकर बंद हो गयी .... शायद अब उसके पास भी कहने को कुछ नही बचा था ....

सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है

10 रुपये का नोट ....(एक लघुकथा)

दौड़ती भागती ज़िंदगी का कुछ पलों का ठहराव सा, ये लोकल ट्रेन का प्लॅटफॉर्म ... यहाँ कदम रुकते हैं पर मन उसी रफ़्तार से चलता जाता है ... कितना कुछ है यहाँ, किसी को किसी पे गुस्सा ... घर के कुछ झगड़े .. . ऑफीस की माथापच्ची ... खाली कंधों पे कितना बोझ है, आँखों के नीचे पड़े गड्ढों और माथे की शिकन से दिख जाता है ... ऐसी ही एक मुर्दा भीड़ मे एक दिन मैं भी मुर्दा सा खड़ा ... ऑफीस जाने की तैयारी मे था ... चेहरे पे थोड़ी बहुत चमक इसलिए थी ... क्यूंकी महीने का पहला हफ़्ता था, दिल ना सही बटुआ तो अमीर था ... बटुआ खोलते ही एक मोटी हरी लकीर देखते ही बनती थी ... उसी की चमक तो शायद मुँह पे हरियाली ला रही थी ... वैसे मुँह पे हरियाली तो मुरझाए चेहरे दिखते नही पर जाने कैसे एक नन्ही मुरझाती कली पे नज़र पड़ी ... बिखरे बाल बता रहे थे पानी से तो उनका रिश्ता बहुत पहले ही छूट गया होगा ... तन पे फटे पुराने कुछ चीथड़े ... शायद वो मैल की पर्त ही कुछ ठंड से बचाती होगी ... उम्र तकरीबन 7 या 8 साल की होगी ... पर मजबूरी तो समय से कुछ तेज़ ही चलती और बढ़ती है ... अपने नन्हे हाथों से किसी का दामन पकड़ उसका मन खंगालने की कोशिश करती ... आँखों मे पेट की भूख सजाए. ... कुछ पाने की चाहत मे चलती जा रही थी ... ट्रेन आने मे अभी 15 मिनिट थे इसलिए चाय की चुस्कियों से अच्छा टाइमपास क्या होता, तो सामने ही एक टी स्टॉल पे पहुँच गया ... ये बेंचने वालों की आँखों मे एक अजीब सा अपनापन होता है ... बनावटी होता है या नहीं ये तो बता नही सकता ... पर उनकी गर्मजोशी देख लगता है बस आपके लिए ही दुकान खोल के बैठा है ... खैर चाय ली ... एक दो घूँट ही मारे होंगे ... कि वो नन्हा मन अपना ख़ालीपन समेटे मेरे सामने खड़ा था ... महीने के शुरुआती दिन हो तो दिल थोड़ा दिलदार हो जाता है ... ज़्यादातर तो अपने लिए ही ... पर आज सोचा कुछ इसको भी दे ही दूं ... बटुआ खंगाला ... एक भी सिक्का नहीं ... अरे होता है न ... जेब मे हज़ारों पड़े हो, पर हम भिखारी और भगवान सिक्के से ही खुश करने की कोशिश करते हैं ... खैर सिक्का नही मिला ... हाँ शर्ट की जेब मे एक 10 रुपये का नोट पड़ा था ... भीख मे 10 रुपये का नोट ... कभी सुना है क्या ... यही सोच उससे मुँह फेरने की नाकाम कोशिश की ... पर जाने क्यूँ वो वहाँ से टस से मस न हुई ... आख़िर इस डर से की कहीं मेरी पैंट छू के गंदी न कर दे ... वो 10 का नोट निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया ... अब दिन भर खराब सा मन लिए घूमने से तो अच्छा था न की 10 रुपये चले जाए पर जान छूटे ... पर वहाँ तो स्थिति ही बदल गयी ... 10 का नोट देखते ही वो रोते रोते वहाँ से भाग गयी ... 10 का नोट हाथ मे ही रह गया, जाहिर सी बात है मुँह से एक ही बात निकली, ये भिखारी भी न ... चाय वाला सब देख रहा था ... अचानक बोला .. . साहब ना आपकी ग़लती है न उसकी ... फिर उसने आगे बताया की पिछले महीने रात के वक़्त किसी ने 10 रुपये के बदले ही इसकी मासूमियत तार तार करने की कोशिश की थी ... वो तो भला हो पोलीस का जो अपने स्वाभाव के विपरीत समय पर पहुँची और एक मासूम की मासूमियत को लुटने से बचा लिया ... पर थे तो पोलीस वाले ही ... पैसा लिया और उस अपराधी को भी छोड़ दिया ... बस इसीलिए 10 का नोट देखा तो वो रोकर भाग गयी. .. मैं स्तब्ध था ... कहने के लिए कुछ ना बचा था ... इस 10 के नोट की कीमत उसके लिए मेरी समझ से भी कहीं ज़्यादा थी ... जिस ओर वो भागी थी कुछ देर उस ओर देखा फिर खुद से एक अजीब सी बदबू आई ... घिन सी हुई खुद से ... अचानक ट्रेन की सीटी बजी ... वो अपनी उसी रफ़्तार से चली आ रही थी ... हाँ मेरी रफ़्तार ज़रूर कुछ कम हो गयी थी ... खैर भीड़ का हिस्सा था तो उसी के साथ ट्रेन मे चढ़ गया ... हाथ मे अब भी वो 10 का नोट था ... उसे देखा तो आँखों के एक कोने से इंसानियत कुलबुला के टपक पड़ी ... लेकिन उस नोट पे चिपका एक महापुरुष अभी भी हंस रहा था ...

सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

बात पीढियों की ....

जब बात पीढियों के बारे में चलती हैं ... हमेशा एक तर्क जो बहुत जोर से दिया जाता हैं कि ... आजकल की पीढ़ी किसी कि नहीं सुनती, घर के कामो में रूचि नहीं लेती, बुजुर्गो का ख्याल नहीं रखती .... बस हर वक्त अपनी बात ... अपनी जिद.

... और न् जाने क्या -2 सबके अपने तर्क .. और साथ में यह भी जोड़ा जाता हैं कि .. हम तो ऐसे नहीं थे (हकीक़त में उनके माँ -. बाप ने भी उन्हें वही कहा होता है ... जब वो छोटे थे, पर उसे कौन याद रखता है) .... आज की पीढ़ी को क्या हो गया हैं .. पर असल में ऐसा हैं क्या .. या सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से बचने का यह कोई तरीका हैं .... जब बच्चा इस दुनिया में आता हैं .. वो कुछ सीख कर नहीं आता .. उसने सब कुछ यही सीखना होता हैं ... इसी दुनिया में .... इस दुनिया में उसे सीखाने वाला कौन हैं .. वो हैं ... पुरानी पीढ़ी .. .. तो क्या उसे सही से सीखाया नहीं जा रहा हैं या वो सीख नहीं रहा .. अगर वो सीख भी नहीं रहा तो भी इसमें दोष किसका हैं ... क्या इस प्रश्न का जवाब कभी ढूँढा गया ...

बात सीधी सी है .. कि ... अगर हम खुद अपने घरों में देखे तो ... हम बच्चो को कभी भी कुछ नया करने के लिए कितना प्रेरित करते हैं ... लेकिन इसका जवाब हमारे पास होता हैं कि ... क्या करे उसके पास समय ही नहीं हैं .... पर क्या समय का सदुपयोग करना हमने उन्हें सीखाया ... पता नहीं ...

इसके बाद .. हम कितनी बार बच्चो को .. घर में कोई आता हैं चाहे वो दूर परिवार के सदस्य ही हो उनसे मिलवाने को उत्सुक रहते हैं ... शायद बहुत कम - तर्क होता हैं समय खराब होगा बच्चो का ..... बच्चो का इन लोगो से क्या लेना देना ...

कितनी बार बच्चो को हम .. अपने साथ ... धार्मिक अनुष्ठानो में ले जाते हैं .... हाँ वहा तब जरूर ले जाते हैं जब पता हो कि बच्चे वहा नाच - गा सकते हैं .. अन्यथा यह सोचते हैं कि बच्चे वहा जाकर बोर होंगे ....... क्या मिलेगा ऐसे प्रयोजनों में जाकर ... हम है न यह काम करने के लिए ....

कितनी बार दूर के रिश्तेदारों के शादी - ब्याह आदि के आयोजनों में हम बच्चो को ले जाते हैं ... वहा तर्क यह होता है कि ... बच्चो को वहा कोई नहीं जानता ... वो क्या करेंगे ..

कितनी बार उनसे कोई बैंक / पोस्ट ऑफिस इत्यादि का काम करवाया ..... तर्क .. क्या जरूरत हैं बच्चो को यह सब करने की ...

कभी किसी परिजन के यहाँ दुर्घटना / देहांत इत्यादि हो जाते हैं तो ... कितनी बार बच्चो को साथ ले जाया जाता है ... तर्क वहा भी यही होता है कि .. ऐसे ग़मगीन माहोल में बच्चे क्या करेंगे ..

देखने में यह भी आता ही कि ... अधिकांश माँ - बाप बच्चो को ... रोमांचकारी खेलो को खेलने के लिए भी उत्साहित नहीं करते क्योकि उनमे चोट लगने के जोखिम भी होते हैं .. तर्क होता है कि चोट लग जायेगी - कौन देखभाल करेगा .. देखभाल करेंगे तो. उनका शेड्यूल परेशान हो जायेगा ...

और भी इसी तरह की बाते होंगी .... क्योकि सबके अपने अनुभव हैं ....

पर इन सबका असर कैसे दिखाई देता है आज की जिंदगी पर .. वो भी हम अब समझ रहे हैं ... जैसे कुछ ऐसा भी होता है .....

आजकल परिवार में बच्चो की सख्या 1 या 2 ही होती हैं .. मतलब वो अक्सर अपने में ही व्यस्त रहते हैं .... जब वो अपने में व्यस्त रहते है तो उन्हें अपनी आजादी ज्यादा अच्छी लगने लगती है .... और जब आजादी ज्यादा अच्छी लगने लगती है .... तब. उसके की रहस्यो बढ़ने लगती हैं ... जब रहस्य बढते जाते हैं ... तो दूसरे कैसे समझेंगे ... यह एक सवाल होता है .. इसके साथ ही अगर कोई दूसरा समझने की कोशिश करता हैं ... तो उसे रहस्य समझने समझने की जरूरत होती हैं ..... और जैसे ही दूसरा उसके रहस्य समझने की कोशिश करता हैं ... उसे लगता हैं कि जैसेउसकी आजादी पर कोई आक्रमण हो रहा है ... कोई उसके अधिकारों पर अतिक्रमण कर रहा हैं ... और फिर वो एकदम या तो अपने को असहाय समझ चुप होकर बैठ जाता हैं या फिर उग्र रूप में वापिसी हमला करता हैं ... इसी के चलते अपने जीवन साथी के साथ सामंजस्य बनाने में भी मुश्किल आती हैं ...

बात छोटी सी है ... कि जब हम उन्हें छोटी उम्र में खुद ही कभी उत्साहित नहीं करते अपने साथ ले जाने के लिए किसी से मिलने के लिए मिलाने के लिए ... तब वो बड़े होकर कैसे उन्ही कामो को पूरा करने / खुद करने कि कोशिश करेंगे ... परिणाम होगा .... आपसी टकराव ....

अंत में बात वही आती हैं कि ... हमने अपनी जिम्मेदारी सही से निभाई .... या बस नयी पीढ़ी को कोशना ही सही हैं ... बचने के लिए तर्क आसानी से दिए जा सकते हैं ... वैसे सब तर्क इसलिए होते है क्योकि कही खुद को बचाना होता हैं .. हम अपनी दिनचर्या में बदलाव से खुद भी परेशां हो जाते हैं ... इसलिए बच्चो को सब करने से रोकते हैं या कहे तो हम इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि उन्हें उस सब बातों को जाने की जरूरत नहीं ....... पर इंसान की जिंदगी में अनेक रंग होते हैं ... सुख दुःख दोनों होते हैं .......... तो क्या हम नयी पीढ़ी को वो सब सहने के लिए सही से तैयार कर रहे हैं .... या हर वक्त सहने के लिए हम हैं .. उन्हें सीखने की क्या जरूरत ...... सोचना हम सबको ही हैं ..

सबके अपने विचार हैं ... कोई भी इस बात को निजी तौर से अपने ऊपर न ले ... बस समाज की दृष्टि से ही इसे पढ़ा जाए .... यह सिर्फ मेरा सोचना हैं .. आप अपनी बता लिखिए ....






सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है